पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/३७५

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३६० राष्ट्रीयता और समाजवाद 'जनवाणी' इस सर्वोत्तम सामाजिक कर्त्तव्यकी पूर्ति करनेकी चेष्टा करेगी। समाजवाद के आलोकसे समस्त सामाजिक जीवनको जगमग कर देना और सभी सामाजिक समस्याओ- का समाधान प्रस्तुत करना 'जनवाणी' का उद्देश्य होगा।' 'जनवाणी' समाजके सम्पूर्ण सर्वाङ्गीण विकासका साधन बननेका प्रयत्न करेगी। इस प्रकार समाजके राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और कलात्मक जीवनसे सम्बन्ध रखनेवाले सभी विषयोपर समुचित प्रकाश डालनेका प्रयत्न 'जनवाणी' करेगी। हम इस पवित्र कार्यमे सभी जनोत्कर्षके प्रेमियो और जनशक्तिके पुजारियोके सहयोगकी प्रार्थना करते है। प्रगतिशील साहित्य वैसे तो प्रगतिशील साहित्यकी परिभापाके सम्बन्धमे अव भी विवाद चला आता है। किन्तु मोटे तौरपर यह कहा जा सकता है कि जीवनके केन्द्रमे मानवको प्रतिष्ठित करके चलनेवाला साहित्य प्रगतिशील साहित्य है । जीवन और मानव एक दूसरेको प्रभावित करते है, परस्पर अन्योन्याश्रित होते है । इनकी पारस्परिक क्रिया-प्रतिक्रियासे ही सामाजिक परिवर्तन होते है । समाजके भीतर क्रियाशील रहते हुए भी अपनेको अलगसे देखने, आत्मनिरीक्षण करनेकी आवश्यकता सदैव होती है। किन्तु उससे पृथक् रहकर, जीवन प्रवाहसे हटकर व्यक्ति अपना विकास नही कर सकता । समाजके भीतर रहकर व्यक्तिको सामूहिक हितको दृष्टिमे रखते हुए एक मर्यादा, वन्धन एवं अनुशासन स्वीकार करना पड़ता है। मनुष्य और पशुमे एक मुख्य भेद यह भी है कि मनुष्यका जीवन अपने समाजसे मर्यादित होता है । अत. सच्चे साहित्यकारका कर्तव्य हो जाता है कि वह मनुष्यको समाजसे पृथक् करके, अमूर्त मानवताके स्वतन्त्र प्रतीकके रूपमे सीमित न कर उसे सामाजिक प्राणीके रूप मे देखे-ऐसे समाजके सदस्यके रूपमे जिसमे निरन्तर सघर्ष हो रहा है और इन संघर्षोके कारण जो प्रतिक्षण परिवर्तनशील है । कहा जाता है कि कलाकार 'स्वान्तः सुखाय' रचना करता है। प्रत्येक रचनात्मक कृतिद्वारा रचयिताको एक प्रकारका आन्तरिक सन्तोष या सुख प्राप्त होता है, इस अर्थमें यह धारणा यथार्थ मानी जा सकती है। किन्तु यदि इसका अर्थ यह लगाया जाय कि कलाकारका और कोई उद्देश्य नहीं होता तो यह धारणा भ्रमपूर्ण होगी। अपने अध्ययन तथा अनुभूतिके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति एव कलाकारका एक दर्शन, जीवनकी व्याख्याका एक विशेष दृष्टिकोण होता है और उसकी रचनाके पीछे यह दृष्टिकोण छिपा रहता है । जीवनके इस दृष्टिकोणके अनुसार कलाकार जीवनको एक विशेष दिशामे प्रकटित होते देखना चाहता है । कलाकारके मनमे यह वात स्पष्ट हो अथवा अस्पष्ट, किन्तु उसकी १. 'जनवाणी' दिसम्बर, सन् १९४६ ई०