प्रगतिशील साहित्य रचनामें भी उसकी यह अभिलापा अपेक्षाकृत सुप्त अथवा चैतन्य रूपमे विद्यमान रहती है। हमारा जीवन पृथक्से दिखायी पड़नेवाले अनेक क्षेत्रोमे बँटा हुआ है । इन पृथक् क्षेत्रोके भीतर और इनमे परस्पर नाना प्रकारके सघर्प हो रहे है । दर्गन अथवा जीवन- सम्बन्धी दृष्टिकोण इस सघर्प और पृथक्तासे ऊपर उठकर सभीको एक सूत्रमें सम्बद्ध करके और उन्हे यथास्थान रखकर समूचे जीवन-क्षेत्रका एक सम्बद्ध दृश्य ( Unified View ) प्रस्तुत करता है । यह जीवन-दर्शन जितना ही सुलझा हुआ होगा, साहित्यिक अथवा कलाकारको रचना सामाजिक प्रगतिमे उतनी ही सहायक हो सकेगी। जीवनके अन्तर्गत अनेक प्रकारके धर्मो-व्यक्ति, कुल, राष्ट्र तथा विश्व-के वीच एक प्रकारका संघर्ष जान पड़ता है। साथ ही उनमे एक प्रकारकी अन्योन्याश्रयता, शृङ्खला और परम्परा भी दिखायी देती है । वस्तुत: यह सघर्ष तभी दिखायी पड़ता है जब हम अन्यो- न्याश्रयताको दृष्टिसे अोझल कर देते है और इन धर्मोको मर्यादित नही कर पाते, उनका उचित सामञ्जस्य नही कर पाते । उदाहरणार्थ राष्ट्र-धर्मका हमे उससे भी उच्चतर विश्व-धर्मके साथ सामञ्जस्य करना पडेगा । सामञ्जस्य होनेपर राष्ट्रधर्मका सर्वथा लोप नही होता, वह केवल मर्यादित स्थान ग्रहण करता है । राष्ट्रधर्म और विश्वधर्मके वीच गहराईमे न जाकर केवल सतहपर से देखनेपर जो सघर्प दृष्टिगोचर होता है उसका लोप होता है । चूंकि व्यक्ति राष्ट्र अथवा विश्वका अंग है, अत: राष्ट्र और विश्वके विकासके साथ ही व्यक्तिको अपने पूर्ण विकासका अवसर प्राप्त होता है । जीवनके केन्द्रमे मानवकी प्रतिष्ठाकी मूल भावनाको लेकर चलनेवाले प्रगतिशील साहित्यिकके लिए विश्वव्यापी जीवन-दृष्टिकोणका होना आवश्यक है । प्रत्येक युगकी सामाजिक व्यवस्था अपनी आवश्यकताअोके अनुसार एक विशेष जीवन-दृष्टिकोणको जन्म देती है । प्राचीनकालमे भी, चाहे पौर्वात्य जगत् हो अथवा पाश्चात्य, जवतक एक प्रकारकी आर्थिक सस्थाएँ और परम्पराएँ प्रचलित रही, उनमें क्रान्तिकारी परिवर्तन नही हुए, तबतक समाजमे इस जीवन-दृष्टिकोणके सम्बन्धमे भी सहमति रही। किन्तु इस निरन्तर परिवर्तनशील संसारमे समाजकी बढती हुई आवश्य- कताओकी पूर्तिके लिए उसकी भौतिक आर्थिक मूलभित्तिमे परिवर्तन होता रहता है और इस मूलभित्तिपर निर्मित विचारोका प्रासाद भी नया रूप ग्रहण करता रहता है । विचार- धाराका तीव्र सघर्प प्राचीनके विनाश और नवीनके उदयकी सन्धि-वेलामे होता है । प्राचीनके गर्भसे ही नवीनका सृजन करनेवाली शक्तियाँ जन्म लेती है । समाजको अतीतकी ओर ले जानेवाली तथा भविष्यकी ओर ले जानेवाली शक्तियोमे सघर्ष होता है । प्राचीनके गर्भसे निकलकर नवीन भविप्यका निर्माण करनेवाली शक्तियाँ प्रबलतर होती जाती है। विरोधी शक्तियोके क्रमिक विकासके प्रसगमे हमे समाजमे गुणात्मक परिवर्तन, कई स्तरोके एक साथ उल्लघन अथवा उत्क्रान्तिके दर्शन होते है । वे विचारशील व्यक्ति जिनके तीव्र सवेदनगील कोमल मानस-पटपर क्षुद्रसे क्षुद्र घटनाएँ भी अपना प्रभाव अंकित कर जाती है, नये परिवर्तनोके क्रम-विकासके साथ समाजको नये विचार देते है। नयी व्यवस्थाको स्थापनाके साथ प्राचीनका सर्वथा लोप नहीं हो जाता । अर्वाचीनके
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