पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/३८५

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३७० राष्ट्रीयता और समाजवाद यह आत्म-सस्कारकी विधि है । जन्मान्तरमै उपचित धर्मप्रविवेकसे योगाभ्यासका मामर्थ्य उत्पन्न होता है । यह धर्मवृद्धिकी पराकाष्ठाको प्राप्त होता है (प्रचय काप्यागत) और उसकी सहायतासे समाधि-प्रयत्न प्रकृप्ट होता है । तब ममाधिविगेप उत्पन्न होता है । वैशेषिक मूत्रमे भी कहा है कि प्रात्मकर्मसे मोक्ष होता हे । आत्मकर्मके अन्तर्गत श्रवण, मनन, योगाभ्यास, निदिध्यासन, ग्रामन, प्राणायाम और शम-दम है । योगकी साधना वीद्ध, जैन दोनो धर्मोमे पायी जाती है। प्राणायामसे काम और चित्तकी प्रवन्धि होती है और जिस प्रकार न्यायशास्त्र प्राणायाम और अगुम संज्ञाकी भावनाको विशेष महत्व देता है उसी प्रकार वीद्धागममे भी उनको विशिष्ट स्थान दिया गया है । इनसे काम रागका प्रहाण और नाना प्रकारके अकुशल वितर्कोका उपशम होता है । मैत्री भावनाका भी माहात्म्य विशिष्ट है । इस प्रकार योगकी साधना वैदिक तथा अवैदिक धर्मोको एक सूत्रमे वाँधती है और यह साधना सवको समान रूपसे तभी स्वीकार हो सकती थी जब सबके भौतिक विचारोमे भी किसी-न-किसी प्रकारका सादृश्य हो । मेरी धारणा है कि विविध सम्प्रदायोके होते हुए भी यदि हमारे देगमे धर्मके नामपर रक्तपात नहीके तुल्य हुए है तो उसका एक कारण यह भी है कि इनको मोक्षकी साधना समान रही है और जिस युगमें भक्तिमार्गका प्रभाव बढा उन युगमे बौद्ध धर्ममे भी उपासनाका प्राबल्य था । मैंने इसका उल्लेख इस कारण किया कि कहीं आप बौद्ध और जैन यागमकी उपेक्षा न करें। इन ग्रन्योमें भारतीय समाजगास्त्रके इतिहासके लिए प्रचुर मामग्री मिलती है और वौद्व तथा जैन विद्वानोने न्याय, दर्शन, व्याकरण और काव्यके विकासमे विगिष्ट भाग लिया है। ऐसे भारतीय वाडमयका संरक्षण तथा प्रचार करना हमारा आपका कर्तव्य होना चाहिये । मैंने भारतीय संस्कृति के विस्तारका यत्किचित् विवरण इस कारण दिया जिसमें हमारे स्नातकोंको इसकी समृद्धि और मूल्यका ज्ञान हो । यह कार्य इस महाविद्यालयका प्रधान लध्य होना चाहिये । किन्तु यह कार्य तवतक सम्पन्न नहीं हो सकता जबतक हम अालोचना और गवेपणाकी अाधुनिक पद्धतिको न स्वीकार करें। अन्वेपणके कार्यके लिए यहाँ वृहत् आयोजन करना होगा । हम अपनी निधिकी रक्षा और उसका मूल्यांकन ठीक-ठीक नहीं कर सकेंगे जवतक संस्कृत विश्वविद्यालयमे संस्कृतके साथ पाली, प्राकृत, चीनी, भोट, तथा कतिपय पाश्चात्य भापात्रो- की शिक्षाको व्यवस्था न की जायगी। पुनः आज नवीन शास्त्रोका उदय हुआ है और प्राचीन विद्याएँ विकसित होकर प्रौढ़ावस्थाको प्राप्त हुई है । अनुसन्धानके कार्यके लिए इनमेसे जिन शास्त्रो और विद्यानोका जितना ना हमारे विशेषजोंको प्राप्त करना चाहिये । उदाहरणके लिए भापा-विज्ञानके सिद्धान्तोको जाने विना हम प्राचीन ग्रन्थोंका कई स्यलपर ठीक-ठीक अर्थ नही लगा सकते । वैदिक साहित्यको समझनेके लिए अनेक जातियोके सांस्कृतिक इतिहासका तथा उनकी भापान्ना जानना भी आवश्यक है। भारतमे अनेक जातियाँ समय-समयपर आती रही है जो भारतीय समाजमे घुल-मिल गयी है । उनके आचार-विचारका प्रभाव पार्योंकी संस्कृतिपर पड़ा है। उत्तर-पश्चिममें यावश्यक