सस्कृतवाडमयका महत्त्व और उसकी शिक्षा ३७१ अनेक धर्म और सस्कृतियोका मिलन तथा परस्पर आदान-प्रदान हुआ है । वहाँकी कलापर यूनानी और ईरानी कलाका प्रभाव पडा था । गान्धारमे अनेक शैलियोका विकास हुआ था और इनकी पूर्ण निष्पत्ति खुतन, कूचा, तुर्फान आदि कलाके प्रसिद्ध केन्द्रोमे हुई थी। इस प्रदेशमे बौद्ध धर्मका सस्पर्श ईरानी, मागी आदि धर्मोसे हुआ था। अत: इस युगके धर्म और सस्कृतिके इतिहासको जाननेके लिए इन विविध धर्मो और सस्कृतियोंका ज्ञान आवश्यक है । भारतीय समाजशास्त्रकी रचनाके लिए आज केवल इतना पर्याप्त नही है कि हम विविध ग्रन्थोके आधारपर पर तथ्योका संग्रह करे, किन्तु साथ-साथ पश्चिमके समाजशास्त्र, नृतत्व आदि उपयोगी शास्त्रोमे प्रतिपादित सिद्धान्त तथा उनमे एकत्र की हुई सामग्रीको जानना भी आवश्यक है । इस महाविद्यालयमे इस कार्य के लिए अनेक सुविधाएँ है। सबसे बडी बात तो यह है कि आपके पास एक वृहत् पुस्तकालय है जिसमे हस्तलिखित और मुद्रित ग्रन्थोका अच्छा सग्रह है । हस्तलिखित पुस्तकोका सूचीपत्र तैयार किया जा रहा है और प्राचीन पुस्तकोके प्रकाशनकी भी व्यवस्था की गयी है। काशी सस्कृत-शिक्षाका प्रसिद्ध केन्द्र है और प्राचीन शैलीके अनेक विद्वान् यहाँ प्रवचन करते हैं । नवीन शैलीके संस्कृत-विद्वानोके सहयोगकी परम आवश्यकता है। पिछले ३० वर्षोमे जिन भारतीयोने सस्कृत विद्याके उद्धारका स्तुत्य कार्य किया है उनमे अधिकाश वही है जिन्होने पश्चिमके गवेषणाके प्रकारोको सीखा है और जिन्होने नये ढगसे शिक्षा प्राप्त की है । इनके सहयोगसे यहाँके स्नातक भी इस कार्यके लिए तैयार किये जा सकते है । इसकी अत्यन्त आवश्यकता है । मै जब काशीमे विद्यार्थी था तव सस्कृत कालेजके कुछ शास्त्री फ्रेंच, जर्मन, पाली आदि पढा करते थे और उनको छात्रवृत्ति दी जाती थी। किन्तु इनकी संख्या बहुत थोडी थी । अव इसी कार्यको बड़े पैमानेपर करनेकी आवश्यकता है । इसके लिए इन भाषाअोके अध्यापन तथा छात्रवृत्तियो- की उचित व्यवस्था होनी चाहिये । अपने प्राचीन ग्रन्थोके प्रामाणिक सस्करण भी अभी नहीं निकल पाये है। महाभारत जैसे प्राचीन ग्रन्थका कोई प्रामाणिक सस्करण न हो यह कितनी लज्जाकी बात है। किन्तु भाण्डारकर अोरियण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट इस कमीको पूरा कर रहा है। इसका आरम्भ सन् १९१६ मे हुआ था और आज भी यह कार्य समाप्त नही हुअा है । यह कार्य जितमा कठिन और महान् है उतना ही इसका महत्त्व भी है । अशुद्ध पाठके आधारपर जो विविध निष्कर्ष निकाले गये थे वह सदोप पाये गये है । जव आदिपर्वका वैज्ञानिक सस्करण सन् १९३३ मे प्रकाशित हुआ था तव उसपर ससारके विद्वानोने वडा सन्तोप प्रकट किया था और उसे सस्कृत-भापा-विज्ञानके इतिहासकी सबसे महत्त्वपूर्ण घटना बताकर डा० सुक्थकरकी प्रशसा की गयी थी । आधुनिक वैज्ञानिक पद्धतिकी जानकारीके विना यह महत्त्वपूर्ण कार्य नही हो सकता था। पुराणोमे भी शोधका बहुत काम करना है । हस्तलिखित पोथियोकी खोज भी जारी रहनी चाहिये और उनकी रक्षाका उचित विधान होना चाहिये । विज्ञानकी सहायताके विना यह साधारण-सा कार्य भी नही हो
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