पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/३८७

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३७२ राष्ट्रीयता और समाजवाद ग्रन्थ, सकता। जो पोथियाँ जीर्ण-शीर्ण हो रही है उनकी रक्षाका एकमात्र उपाय उनका चिन्न लेना है । माइक्रोफिल्म और फोटोस्टैट कैमराकी सहायतासे यह कार्य मुकर हो गया है । इस सम्बन्धमे मुझे एक निवेदन करना है कि गवर्नमेण्टको इण्डिया ग्राफिस लाइब्रेरीमे संगृहीत भारतीय पुस्तकोकी वापसीकी चेष्टा करनी चाहिये। समाचारपत्रोसे ज्ञात होता है कि ऐसी कुछ चेप्टा की जा रही है । यदि यह सत्य है तो यह परम सन्तोपका विपय है । इंगलैण्डके अतिरिक्त अन्य देशोमे जो ग्रन्थ गये है उनका चित्र प्राप्त करनेका प्रयत्न होना चाहिये । एक ऐसा भी कानून बनाना चाहिये कि भारतसे बाहर कोई प्राचीन चित्र या कलाकी वस्तु न जावेगी । मेरी संस्कृत विश्वविद्यालयकी कल्पना यह है कि यहाँ प्राचीन शास्त्रोके स्वाध्याय- प्रवचनके साथ-साथ गवेपणाकी पूरी व्यवस्था की जाय और इस सम्बन्धमे जिन भापायो और नवीन शास्त्रोकी शिक्षाकी आवश्यकता हो उसका भी प्रवन्ध किया जाय । इस गवेपणाके कार्यमे पुरातन और नवीन शैली, दोनोके विद्वानोंका सहयोग प्राप्त किया जाय तथा विद्यालयसे निकले हुए प्राचार्योको छात्रवृत्ति देकर अन्वेषणके कार्यके लिए तैयार किया जाय । यहाँ ऐसी भी व्यवस्था होनी चाहिये जिससे अन्य विश्वविद्यालयोके विद्वान् यहां आकर अनुसन्धानके कार्यमे योग दे सके । किन्तु इस व्यवस्थामे पूरा लाभ तभी होगा जव यहाँके पाठ्यक्रममे उचित परिवर्तन किये जायेगे। प्राजके युगमे पुरानी पद्धतिकी संस्कृतकी शिक्षा तभी अपने उद्देश्यको चरितार्थ कर सकती है जव शास्त्रोको शिक्षाके साथ-साथ मौलिक शिक्षाकी भी व्यवस्था की जाय । प्रत्येक विद्यार्थीको केवल अपनी जीविकाका ही उपार्जन नही करना है, किन्तु उसे एक नागरिकके कर्तव्योका भी पालन करना है और इससे भी वढकर उसे मनुष्य वनना है और मनुप्य भी पुराने युगका नहीं, अाजके युगका जव समाजने अपने सामञ्जस्यको खो दिया है, जब विचारोमे संघर्प चल रहा है और एक प्रकारको अनिश्चितता है जिसके कारण जीवनके प्रति कोई स्पष्ट और उत्कृष्ट दृष्टि नही वन पाती । वह मनुष्य क्या है जो अपनी मातृभाषाके साहित्यसे परिचित नही है, जो एक शास्त्रका विशेपन होनेके लोभमे अपने साहित्य और कलाकी अमर कृतियों की उपेक्षा करता है ? वह मनुष्य क्या है जो संसारके इतिहाससे अपरिचित है, जिसको वर्तमान समस्याग्रो और घटनाग्रोका जान नही है ? वह अपने विषयका विशेपज्ञ हो सकता है। यदि वह विज्ञानका विद्यार्थी है तो वह कुशल शिल्पी हो सकता है, यदि वह संस्कृतका शास्त्री या प्राचार्य है तो वह पौरोहित्य या अध्यापनका कार्य कर सकता है, किन्तु दोनो दूसरोका उपकरण ही बन सकते है और समाज और राजनीतिके संचालनमे वह अपनेको असमर्थ पाते है । इसका कारण यह है कि वह अपने धन्धेको जानते है, किन्तु शिक्षा और जीवनके परम उद्देश्यको नही जानते । उनकी दृष्टि व्यापक नही है और न उनकी शिक्षाका क्षेत्र इतना विस्तृत है कि उनको जीवनके विविध क्षेत्रोके लिए सामान्य रूपसे तैयार करे । इसलिए प्रत्येक विद्यार्थीके लिए ऐसी पाठ्य-पद्धति होनी चाहिये जिसकेद्वारा यह सामान्य किन्तु परम आवश्यक ज्ञान उसको दिया जा सके । इस दृष्टिसे डाक्टर भगवानदास-समितिके अभिस्तावो तथा निष्कर्षोंका मैं सामान्य रूपसे स्वागत करता