संस्कृतवाडमयका महत्त्व और उसकी शिक्षा ३७३ हूँ। नवीन विषयोके समावेशकी बात तो दूर रही, वर्तमान प्रणालीके अनुसार सस्कृत- वाडमयका भी एकाङ्गी अध्ययन ही हो पाता है। अत. पाठ्यक्रमके क्षेत्रको दो प्रकारसे हमे विस्तृत करना चाहिये । एक-संस्कृत- विद्याकी पाठ्य विधिको व्यापक और सर्वाङ्गीण वनाना । दो-पाठ्यविधिमे आधुनिक विषयोका तथा, हिन्दी, इतिहास, भूगोल, राजशास्त्र, गणितका समावेश करना । साथ-साथ विद्यार्थियोमें तुलनात्मक और आलोचनात्मक अध्ययनकी प्रवृत्ति उत्पन्न करनी चाहिये । इन सिद्धान्तोके आधारपर पाठ्य-पद्धतिका पुनर्निर्माण होना चाहिये, किन्तु इस वातका ध्यान रखना चाहिये कि ज्ञानके गाम्भीर्यमे कमी न हो तथा गाम्भीर्यकी रक्षा करते हुए आवश्यक मात्रामे उसका विस्तार भी हो । जितना अाधुनिक ज्ञान एक साधारण विद्यार्थीके लिए नितान्त आवश्यक है उतना तो सस्कृत पाठशालाप्रोके छात्रोको भी अजित करना चाहिये। मैं एक दूसरे आवश्यक कार्यकी ओर आपका ध्यान दिलाना चाहता हूँ, यह है सस्कृत- वाडमयका हिन्दीमे अनुवाद । यदि हिन्दी भाषामे हमारे प्राचीन ग्रन्थ-रत्नोका अनुवाद प्रस्तुत हो तो इससे भारतीय सस्कृतिके प्रचारमे बड़ी सहायता मिलेगी। आधुनिक भाषाप्रोकी आप उपेक्षा नही कर सकते । सारा राज-काज इन्ही भाषाप्रोमे होने जा रहा है। धीरे-धीरे राष्ट्रभापा विश्वविद्यालयोमे शिक्षाका माध्यम हो जायगी। आपको मातृभाषाका तिरस्कार नही करना चाहिये । अव वह समय नही रहा जब किसी लेखक या कविसे प्रश्न किया जाय कि तुम सस्कृतका परिहार कर हिन्दीमे गद्य या काव्य-रचना करनेमे क्यो प्रवृत्त हुए हो। इसका उत्तर राजशेखर और गोस्वामी तुलसीदासजी दे गये है। राजशेखरके अनुसार सस्कृतवन्ध परुष और प्राकृतवन्ध सुकुमार है । वह आगे चलकर कहते है कि उक्तिविशेप ही काव्य है भाषा चाहे जो हो । राजशेखरके समयमे सस्कृत काव्य कृत्रिम और क्लिष्ट हो गया था, यह उसके ह्रासकी अवस्था थी। रामायण, महाभारत, महाभाष्य और शकरभाष्यकी शैली भला दी गयी थी, काव्यका प्रसाद गुण विलुप्त हो गया था। भामहका कहना है कि काव्यको क्लिष्ट और दुरूह नही होना चाहिये, उसके समझनेके लिए किसी टीकाकी आवश्यकता न होनी चाहिये । वह इतना सरल हो कि साधारण पढे-लिखे लोग, बालक और स्त्रियाँ भी उसे समझ सके । गद्यका प्राण प्रोज है (प्रोजः गद्यस्य जीवितम्) जव सस्कृत किसी वर्गकी भी वोलचालकी भापा न रह गयी तो उसमे कृत्रिमताका आ जाना स्वाभाविक है । तव पाण्डित्य-प्रदर्शन ही एकमात्र काव्य-रचनाका उद्देश्य रह गया और काव्य हृदयग्राही न रहा । माधुर्य और प्रसाद गुण मातृ भाषाके साहित्यमे ही सुगमताके साथ आ सकता है । अत मातृभापामे साहित्य-सर्जन करनेमे हमको गौरवका अनुभव करना चाहिये । मैने अपनी वुद्धिके अनुसार यह बतानेकी चेष्टा की है कि सस्कृत विश्वविद्यालयका क्या उद्देश्य और क्या कार्यक्रम होना चाहिये । यहाँ मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि इस विश्वविद्यालयमे उन सब विषयोके अध्ययनको व्यवस्था साधारणत करनेकी कोई आवश्यकता नही है जिनका प्रवन्ध अन्य विश्वविद्यालयोमे होता है । वहाँका पठन-पाठन
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