एशियाके स्वतन्त्रता आन्दोलनकी एक रूपरेखा कई वार एशियाके राष्ट्रोने अपनी रक्षा करनेके लिए प्रयत्न किये, पर वे कई बार विताड़ित हुए । उनकी फौजी शक्ति यूरोपके राष्ट्रकी फौजी शक्तिके सामने वेकार सावित हुई । उन्होने यह समझ लिया कि यूरोपका मुकाविला करनेकी शक्ति उनमे नही है । चीन जैसे विशाले साम्राज्यको भी यह कटु अनुभव प्राप्त हुआ । एक समय था जव कि चीनके सम्राट् अपने पड़ोसी राज्योके अधिपति थे और उनसे खिराज वसूल किया करते थे। वह समझते थे कि उनका प्रतिद्वन्द्वी जगत्मे कोई नही है । जिस संसारसे वे परिचित थे, उस ससारपर वे प्रभुत्व करते थे और चीनियोकी यह धारणा थी कि उनके समान सभ्य जाति संसारमे नही है । कमसे-कम यूरोपके लोगोको तो वर्वर ही मानते थे। १८ वी शताब्दीमे जव इगलैण्डके वादशाहने व्यापारकी सुविधाएँ प्राप्त करनेके लिए चीनके सम्राट- के पास एक मिशन भेजा तव सम्राट्ने जो उत्तर दिया वह विचारणीय है । उन्होने कहा कि इगलैण्डमे कोई ऐसी वस्तु नही होती जिसकी चीनियोकी आवश्यकता हो, इसलिए हमको किसी विदेशी मालकी आवश्यकता ही नहीं है । हाँ, कोई जाति सभ्य नही कहला सकती, यदि वह रेशम, चाय और चीनी-वर्तनका व्यापार नही करती। यदि इंगलैण्डको इन वस्तुप्रोकी आवश्यकता है तो हम थोड़े परिमाणमे इन वस्तुओको दे सकते है, किन्तु हमको यूरोपके किसी मालकी जरूरत नही है । एशियाके अधःपतनका युग यह युग एशियाके अध पतनका युग था । हर जगह निश्चेष्टता और अकर्मण्यताका राज्य था । लोगोमे किसी प्रकारकी नवीन चेतना एवं प्रेरणा न थी। एशियाके लोग यूरोपकी उदीयमान नयी शक्तियोकी तनिक भी जानकारी नहीं रखते थे और उनको उपेक्षाकी दृष्टिसे ही देखते थे। इसके प्रतिकूल यूरोपमे एक नवीन जागृति हो रही थी। विज्ञानके युगका प्रारम्भ हो गया था । जीवनके प्रत्येक क्षेत्रमे नये विचार प्रवेश पा रहे थे। लोगोमे एक नया उत्साह था। हर दिशामे खोज और अन्वेषण हो रहे थे । जीवनकी धारा प्रस्फुटित हो समाजको पुष्ट कर रही थी। भौगोलिक खोजकी उत्कट अभिलापाने नयी दुनियाको खोज निकाला था। इसके फलस्वरूप नये-नये विज्ञानोकी प्रतिष्ठा हुई और व्यापारको समृद्धि हुई। यूरोपके लोग विश्व-विजयके लिए निकल पडे । धीरे- धीरे आर्थिक क्षेत्रमे क्रान्ति हुई और यन्त्रयुगका सूत्रपात हुया । पूँजीवादी सत्ताकी स्थापनासे यूरोपके राष्ट्रोकी फौजी शक्ति वहुत बढ गयी और वे दुर्वल राष्ट्रोको ग्रसने और सताने लगे । चीनका बन्दर बँटवारा हो गया । एशियाके दुर्बल राष्ट्र जो इन नयी शक्तियोसे अपरिचित थे और जो तमाविष्ट हो अहम्मन्यताके नशेमे चूर थे, अपने घरको न संभाल सके। एक-एक करके यूरोपके राष्ट्रोने एशियाके देशोको अपने अधीन किया, या कम-से-कम उनके आर्थिक जीवनपर प्रभुत्व स्थापित किया। यूरोपीय साम्राज्यवादका एशियामे बोलवाला हो गया । यूरोपकी सस्कृतिका प्रभाव भी वढने लगा। एशियाके लोगोने धीरे-धीरे अपनी तुच्छताको स्वीकार किया और उनकी यह धारणा हो गयी कि हम यूरोपका मुकाविला नही कर सकते । जव किसी जातिकी ऐसी मनोवृत्ति हो जाय तो उसका उद्धार किस प्रकार हो !
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