पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/४०९

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३६६ राष्ट्रीयता और समाजवाद जापानले सबक सीखा जापान ही एक ऐसा देश था जो साम्राज्यवादके चंगुलसे बच सका । उसने यूरोपीय संस्थानोको अपनाया, यूरोपीय ढगकी सेना सुसज्जित की और उद्योग-व्यवसायकी उन्नति कर अपनेको सुदृढ बनाया । स्वभावत सारे एशियामे वह आदरका पात्र बन गया, लोग समझने लगे कि विना यूरोपीय सस्थानोको अपनाये परित्राण पाना सम्भव नही है । चीनने भी जापानसे सबक सीखा और यूरोपीय ढंगपर अपनी सेना और शासन-प्रणालीको बदलनेका प्रयत्न किया । जापान और अमेरिकामे शिक्षा प्राप्त करनेके लिए विद्यार्थी भेजे गये और चीनी क्रान्तिकारियोने जापानमे अपना अड्डा बनाया, किन्तु इतना होनेपर भी यह विश्वास नही था कि एशियाके लोग यूरोपके मुकाबलेमे खडे हो सकेगे । किन्तु रूस-जापानके युद्धने यह दिखा दिया कि एशियाके राष्ट्र भी तैयार होनेपर यूरोपके राष्ट्रोका मुकाविला कर सकते है । इससे यह सिद्ध हुआ कि ऐसी कोई नैसर्गिक त्रुटियाँ एशियाके लोगोमे नही है, जिसके कारण वह सदा असफल रहे । खोया हुअा अात्म- विश्वास फिर लौट आया, प्रात्म-ग्लानि दूर हुई और जातीय जागरणका युग प्रारम्भ हुआ । इसी समयसे एशियाके जीवनका एक नया पृष्ठ प्रारम्भ होता है । रूस- जापान युद्धने विजलीका-सा असर किया। हर जगह जागृतिके चिह्न दीख पडने लगे और राष्ट्रीय उत्थानके लिए प्रयत्न शुरू हो गये । चीनकी मचू-गवर्नमेण्टने शासनमे सुधार करने प्रारम्भ कर दिये और आगे चलकर विधान बनानेके लिए एक कमीशन भी नियुक्त किया गया था। इसी समय भारतमे स्वदेशी और बहिप्कारका आन्दोलन प्रारम्भ हुआ तथा कांग्रेसमे एक नये दलका जन्म हुआ, जिसने पूर्ण स्वतन्त्रताको अपना उद्देश्य घोपित किया । पुराने नेताअोका विश्वास था कि अंग्रेज भारतके कल्याणके लिए शासन करते है और जब हिन्दुस्तानी इस वातको प्रमाणित कर देगे कि उनमे शासन करनेकी योग्यता प्रतिपादित हो गयी है तब अंग्रेज स्वेच्छासे शासन उनके सुपुर्द कर विलायत लौट जायँगे । आज हमको यह सुनकर हँसी आती है और आश्चर्य होता है कि इतने वडे नेता जिनकी विद्वत्ता और नीतिज्ञतामे कोई कमी न थी, कैसे इस तरहके बालोचित विश्वासको अपना सकते थे। वे तो राजनीतिका क ख ग भी न जानते थे। कोई भी दूसरे देशपर उसके लाभके लिए राज्य नहीं करता। भारतीय राजनीतिकी सबसे बडी तात्कालिक आवश्यकता इस बातको समूल नष्ट करना था। यह काम नये दलने किया । उसने 'भिक्षा देहि' की पुरानी नीतिकी धज्जियाँ उडा दी। उसने आत्म-निर्भरताका पाठ पढाया । लोकमान्य तिलकने बताया कि जो अपने पैरोपर अपने-आप नही खडा होता ईश्वर भी उसकी मदद नहीं करता। अंग्रेज व्यापारके लिए भारत आये है, इसलिए स्वदेशी और वहिष्कारके अस्त्रका प्रयोग कर उनके मर्मस्थलपर आघात पहुँचाना चाहिये । असहयोगकी भी चर्चा हुई है और पूर्वी वगालमे इसका प्रयोग भी छोटे पैमानेपर हुआ । औपनिवेशिक स्वराज्यके स्थानमे पूर्ण स्वतन्त्रताके ध्येयका प्रचार किया गया ।