पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/४३३

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४२० राष्ट्रीयता और समाजवाद ऐसे लोगोको प्रोत्साहन मिलता है जो अवैधानिक तरीकोंसे काम लेना चाहते है । ईराकका विधान लोकतन्त्रात्मक है और यदि उसके अनुसार कार्य किया जाय, तो समाजकी उन्नति हो सकती है । किन्तु आज ईराकका मुख्य प्रश्न यह है कि विधानकी रक्षा होगी या नही। प्रश्न यह है कि ब्रिटिश गवर्नमेण्ट इस स्थितिके लिए कहाँतक उत्तरदायी है । ईराककी स्वतन्त्रता नाममात्रको है । ईराकके साथ अंग्रेजोंकी जो सन्धि सन् १९३२ में हुई थी, उसके द्वारा अग्रेजोने कई अधिकार अपने हाथमे रख लिये थे। युद्धकालमे उनका प्रभाव और बढ गया था । अंग्रेज नही चाहते कि ईराककी जनताके लाभके लिए राज्यकी ओरसे सुधार किये जायँ । लोगोंका विश्वास है कि वर्तमान शासकोको ब्रिटेनका समर्थन प्राप्त है। लोगोका यह भी कहना है कि उसीके इशारेपर आज ईराकमें लोकमत दवाया जा रहा है और नागरिक स्वतन्त्रताका अपहरण हो रहा है । यह अवस्था प्रायः सभी अरब देशोमे पायी जाती है । यह कोई आकस्मिक घटना नही है । ऐसा ख्याल किया जाता है कि सोवियत रूसके प्रभावको घटानेके लिए तथा अपनी फिलिस्तीन सम्बन्धी नीतिके विरोधको रोकनेके लिए ब्रिटिश हुकूमत इस सामान्य नीतिको बरत रही है ।' एशियाई सम्मेलन अभी दिल्लीमे एशियाई सम्मेलनका जो प्रथम अधिवेशन समाप्त हुआ है, वह बड़े महत्त्वका है । इस सम्मेलनको आशातीत सफलता प्राप्त हुई है, यह बात सभीने मुक्त कण्ठसे स्वीकार की है । इसका आयोजन इण्डियन काउंसिल आव वर्ल्ड अफेयर्स' ने किया था। इस सस्थाका उद्देश्य भारतीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय घटनाअोका अध्ययन करना है। एशियाके देशोकी ऐसी आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक समस्याग्रोपर विचार करनेके लिए यह सम्मेलन आमन्त्रित किया गया था, जो सबको सामान्य है। इस प्रकार विवादग्रस्त विपयोपर इस सम्मेलनमे विचार नही किया जा सकता था। इसके अतिरिक्त सम्मेलन बुलानेमे एक उद्देश्य यह था कि उन उपायो और साधनो का अध्ययन किया जाय,जिनके द्वारा एशियाके विविध देशोके वीच निकटका सम्बन्ध स्थापित हो सके । सम्मेलनमे एशियाके सभी देशोसे प्रतिनिधि बुलाये गये थे। इनमे मध्य एशियाके सोवियत रिपब्लिक, जापान, कोरिया और आउटर मगोलिया भी शामिल थे। प्रायः सभी देशोके प्रतिनिधियोने सम्मेलनमे भाग लिया था। खेद है कि जापानको अपने प्रतिनिधि भेजनेकी सुविधा नही दी गयी। जापानको इस सम्मेलनसे बाहर रखनेकी चेष्टा गहित है। हम समझते है कि जापानको सम्मेलनमे शरीक होने देनेसे लोकतन्त्रको लाभ ही होता । जिस जापानके शासकोकी महत्त्वाकाक्षा एशियाका अधिनायक बननेकी थी, उस देशके प्रतिनिधि एशियाई सम्मेलनमे दूसरोसे कोई ऊँचा स्थान नही पा सकते थे। १. 'जनवाणी' मार्च, सन् १९४७ ई०