सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/४६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

जनसाधारण और सरकारके आदर्श ४४६ उसकी चर्चा घर-घर फैलायी जाती है। यही कारण है कि हमारे इतिहास जो बहुधा स्टेटसे सम्बन्ध रखनेवाले अथवा स्टेटसे प्रभावित मनुष्योद्वारा लिखे गये है अधिकतर युद्धोकी ही चर्चा करते है । एक कथाका विवरण हमको महाशय क्रोपाटकिन ( Kropotkin ) के 'परस्पर साहाय्य' ( Mutual Aid ) नामक ग्रन्थमे मिलता है जिससे स्टेटोकी कार्य-प्रणालीका परिचय भलीभाँति हो जाता है । यह कथा सन् १८८४ या १८८५ ई० की है । एक मनुष्य फ्रान्स देणके किसी जेलखानेमे कैद था और यद्यपि फ्रान्सके जेलोसे भागना एक दुष्कर कार्य है, तथापि वह किसी-न-किसी प्रकार जेलसे भागा । वह दिनभर छिपा रहा और यद्यपि लोग उसकी ताकमे थे तथापि किसीकी दृष्टि उसपर नही पड़ी। दूसरे दिन प्रात काल वह एक खाईमे जा छिपा । यह खाई एक छोटेसे गॉवके समीप थी। उसका विचार कुछ कपडे चुरानेका था, जिसमे जेलकी वर्दी जो वह पहने हुए था उतार दे । उसी समय गाँवमे आग लगी। भागे हुए कैदीने एक जलते हुए मकानसे दौडकर बाहर आती हुई एक स्त्रीको देखा । स्त्री चिल्ला-चिल्लाकर लोगोसे प्रार्थना कर रही थी कि 'अरे कोई मेरे जलते हुए बच्चेकी रक्षा करो।' वच्चा जलते हुए मकानके कोठेपर था । परन्तु किसीने उसकी विनीत प्रार्थनापर ध्यान न दिया । स्त्रीको प्रार्थना कैदीके कानो तक पहुँची और वह एकाएक खाईसे निकला और पागको चीरता हुआ उस मकानतक पहुँचा । बच्चेको आगसे सुरक्षित निकाल लाया और उसको उसकी माताको सौप दिया । इस उद्योगमे उसके कपडे जलने लगे और उसका चेहरा झुलस गया, पर उसने अपने कष्टकी कुछ भी चिन्ता न की। गॉवके चौकीदारने तुरन्त ही उसको पकड लिया और वह जेलखाने लाया गया । फ्रान्सके सब पत्नोमे यह घटना प्रकाशित हुई, परन्तु उस आभागेको छुडानेके लिए किसीने भी प्रयत्न नही किया । इसपर क्रोपाटकिन महाशय टीका करते हुए लिखते है कि यदि जेलके भीतर कोई कैदी वार्डर ( warder ) को मारना चाहता और यदि हमारा कैदी वार्डरसे उसकी रक्षा करता तो उसकी अवश्य प्रशसा होती, क्योकि वह स्टेटके शासनमे योग देनेवाला होता । परन्तु हमारे कैदीका कार्य केवल मनुष्योचित था और स्टेटके आदर्शके फलीभूत होनेमे सहायक नही था और इसीलिए यह इस वातके लिए पर्याप्त था कि वह भुला दिया जाय । कीन ऐसा सहृदय मनुष्य है जो इस फासके कैदीके साथ सहानुभूति न दिखावे और इसकी वीरताकी प्रशसा न करे । इसी प्रकार कौन ऐसा मनुष्य है जो इस भारतीय नजरबन्दके मातृप्रेमकी प्रशसा न करे और उसको वीरकी पदवी न प्रदान करे । क्रोपाटकिन- के शब्दोमे इस नजरबन्दका कार्य केवल मनुष्योचित था और इसी कारणसे गवर्नमेण्टने सहानुभूति प्रदर्शित करने के स्थानमे उसको दण्डका पान समझा । परन्तु हम साधारणजन जिनकी बुद्धि-सौभाग्यसे अथवा दुर्भाग्यसे-उस उन्नत अवस्थाको नही प्राप्त हुई, इस नजरवन्दके साथ अवश्य अपनी हार्दिक सहानुभूति प्रकट करेगे और उसके वीरोचित गुणोका गान कर अपनी आत्माको उन्नत तथा पवित्र वनावेगे।' १. 'मर्यादा' अप्रैल, सन् १९१८ ई० २६