४५० राष्ट्रीयता और समाजवाद पूँजीवादी समाज और प्रेस लोकतन्त्रको रक्षा और उन्नतिके लिए प्रेसकी स्वतन्त्रता आवश्यक है । प्रेसका मुख्य कार्य नागरिकोको राजनीतिक शिक्षा देना है जिससे वह अपने वोटका उचित उपयोग कर सके । सार्वजनकि प्रश्नोपर अपना मत निश्चित करनेके लिए प्रत्येक व्यक्तिको अधिकतर प्रेसपर ही निर्भर करना पड़ता है, क्योकि प्रेसके द्वारा ही उसको उन घटनापोका ज्ञान होता है, जिनके जाने बिना कोई मत स्थिर नही किया जा सकता। किन्तु यह मानना पडेगा कि किसी एक समाचार-पत्रके लिए सब घटनाअोका उल्लेख करना सम्भव नहीं है, क्योकि घटनाएँ अनगिनत है, इसलिए यह आवश्यक है कि पत्र-पत्रिकाएँ बहुत वडी सख्यामे प्रकाशित हो, जिसमे एक विचारशील नागरिक कई पत्र पढकर घटनाप्रोका सग्रह करे और इस प्रकार वस्तुस्थितिकी अच्छी तरह जानकारी प्राप्त करे । आरम्भमे राजनीतिक शिक्षा देनेके लिए ही प्राय. राजनीतिक प्रश्नोका प्रकाशन हुआ करता था । प्रकाशकोमे व्यापार-बुद्धि नही थी। यदि कोई आर्थिक लाभ होता था तो यह आनुषंगिक था। विविध राजनीतिक दल अपने विचारोका प्रचार करनेके लिए पत्रोका प्रकाशन करते थे। इनके सम्पादक सार्वजनिक नेता या विचारक होते थे और सम्पादकीय लेखोमें एक विशेष राजनीतिक दृष्टिका प्रतिपादन करते थे। किन्तु ऐसे पत्रोके पढनेवाले वहुत कम होते थे। जनतापर इनका प्रत्यक्ष प्रभाव नही पडता था। एक तो अधिकाश जनता साक्षर न थी, दूसरे कम पढे-लिखे लोगोमे विचार-शक्ति नहीं होती। इसका परिणाम यह होता था कि स्वतन्त्र देशोमे शासक-वर्ग और परतन्त्र देशोमें शिक्षित-वर्ग ही इन पत्रोको पढ़ा करते थे। अपने देशमे श्री मोतीलाल घोष, लोकमान्य तिलक, श्री अरविन्द घोप, श्री सुरेन्द्रनाथ वनर्जी, श्री विपिनचन्द्र पाल, लाला लाजपतराय, श्री गणेशशंकर विद्यार्थी आदि सभी पत्रोके सम्पादक थे । जो नेता स्वयं सम्पादक न थे, उनके भी अपने पत्र थे। इन पत्रोको सदा घाटा रहा करता था । सार्वजनिक चन्देसे ही इनका काम चलता था। इनमेसे यदि किसीकी लिमिटेड कम्पनी बनी भी तो उनमे हिस्सा लेनेवाले मुनाफेकी आशासे हिस्सा नही लेते थे। वे यही समझते थे कि हम दान दे रहे है । किन्तु धीरे-धीरे देशमें उद्योग-व्यवसायकी वृद्धि होने लगी। इन विविध कारणोसे प्रेस भी धीरे-धीरे व्यापारकी दृष्टिसे चलाया जाने लगा । यह स्पष्ट है कि इस काममे पूंजीपतियोको बड़ी सुविधा है । पूंजीके वढनेसे उद्योग-व्यवसायके मालिकोकी शक्ति बढ जाती है और जब प्रजाके हाथमें' राजनीतिक शक्तिके आनेका सुयोग प्राप्त होता है, तब स्वभावत: यह वर्ग उस शक्तिको अपने अधीन करने, कमसे कम नये शासकवर्गको प्रभावित करनेकी चेष्टा करने लगता है। लोकमतको प्रभावित करनेका सबसे अच्छा साधन प्रेस है । इसलिए पूंजीपतियोकी दृष्टि प्रेसपर पड़ती है और अनेक प्रकारसे वह उसपर अपना नियन्त्रण प्राप्त करना चाहते है । गत महायुद्धमे भारतीय पूंजीकी वृद्धि अति मात्रामें हुई है और युद्धके कारण ससारके समाचार जाननेकी उत्सुकता भी सर्वसाधारणमे बढ़ गयी है । इस परिस्थितिसे लाभ उठाना
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