विचारकोके सम्मुख एक नयी समस्या ४५५ उत्तम स्थान देना चाहिये । अब समय आ गया है जव हमारी आँखे अतीतसे हटकर भविष्यकी ओर होनी चाहिये । अतीतके वोझसे तो हम दवे जाते है । बुद्धिमान पुरुष मुर्दोके लिए नही लड़ता । अब हम ऐसे कमजोर भी नही है जो हमको अतीतके गौरवके वलपर दुनियाकी आँखोमे अपनेको ऊँचा उठानेकी आवश्यकता हो । इस सम्वन्धमें कार्लमार्क्स ने लिखा था- "क्या वह प्रेस, जिसका व्यापारिक लाभके लिए संचालन होता है और जिसका इस प्रकार नैतिक पतन हो जाता है, वह स्वतन्त्र है ? इसमे सन्देह नही कि लेखकको जिन्दा रहने और लिखनेके लिए धन कमाना जरूरी है, किन्तु उसको धन कमानेके लिए ही जिन्दा रहना और लिखना नही चाहिये । प्रेसकी पहली स्वतन्त्रता इसमे है कि व्यापारसे उसका छुटकारा हो । जो लेखक प्रेसके पतनके लिए जिम्मेदार हो और जो उसको अर्थका दास बना देता है, वह दण्ड पानेके योग्य है और इस प्रारम्भिक दासताके लिए दण्ड वह बाह्य दासता है जिसे प्रेसका नियन्त्रण ( Censorship ) कहते है अथवा कदाचित् उसका जिन्दा रहना ही उसका दण्ड है।" पूंजीवादके अाजके युगमे पूंजीवादी राष्ट्रोमे प्रेसकी ऐसी ही दुर्दशा होगी। एकमात्र समाजवाद ही प्रेसकी वर्तमान दासताको दूर कर सकता है । समाजवादी समाजमे ही व्यक्तित्वके पूर्ण विकासको सम्भावना है । आजके समाजमे रुपयेका वड़ा जोर है। मनुष्यकी माप रुपयेसे ही होती है। यह सब बदलना है। समाजमे जीवनके सच्चे सामाजिक और आध्यात्मिक मूल्योको प्रतिष्ठित करना है । जो लोग इष्टत्व-अनिष्टत्वकी छानबीन कर सद्बुद्धिसे प्रेरित हो कल्याणकारी कार्योमे अग्नसर है वही पूंजीवादके अभिशाप से समाजका परित्राण कर सकते है। विचारकोंके सम्मुख एक नयी समस्या विश्व-समाजमे आज केवल सामाजिक क्रान्ति ही नही हो रही है, किन्तु विश्वके विचारकोमे भी एक आध्यात्मिक उथल-पुथल मची है। ऐटम बमके आविष्कारने इन विचारकोको भविष्यके सम्बन्धमे गम्भीरताके साथ विचार करनेके लिए विवश कर दिया है फासिटीवाद और नाजीवादके मौलिक आधारके अध्ययनने भी भविष्यके सम्बन्धमे सन्देह उत्पन्न कर दिया है । समाजवादसे जिनको बडी आशा थी, जिन्होने रूसके समाजवादमें अपने स्वप्नोको स्थूल रूप धारण करते देखा था और जो इस कारण स्वय कम्युनिस्ट पार्टीके आदरणीय सदस्य हो गये थे, उनमेसे कई विचारक रूसके समाजवादका विकृत रूप देखकर इतने क्षुब्ध और निराश हुए कि वह रूसके कट्टर विरोधी वन गये और धीरे-धीरे उनमेसे कुछकी यह धारणा हो गयी कि मार्क्सवादमे ही कोई ऐसा मौलिक दोष है, जिसके कारण यह विकार उत्पन्न हुआ है । महायुद्धके वादसे एक निश्चित योजनाके अनुसार अपने १ 'जनवाणी' सितम्बर, सन् १९४६ ई०