पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/४७०

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विचारकोके सम्मुख एक नयी समस्या ४५७ प्रणालियोके पक्षमे नही है। इनका दुरुपयोग होते उन्होने देखा है । वह देखते है कि निश्चित योजनाके अनुसार जो अर्थनीति निर्मित होती है उसकी दिशा अधिनायकत्वकी ओर होती है । वह दोनोको कार्य-कारणके रूपमे देखते है । अत: वह इसको स्वीकार नही करते कि ऐसे उपाय भी हो सकते है, जिनका आश्रय लेकर हम इस अर्थनीतिसे लाभ उठाते हुए समाजकी रक्षा उसके दोपोसे कर सकते है । फासिटीवादकी वर्वरता वह अपनी आँखो देख चुके है । ससारने लोकतन्त्रकी रक्षाके लिए एक महान् युद्ध रचा और नाजी- शक्तिका अन्त किया । अव वह यह चाहते है कि समाजका एक ऐसा रूप हो जिसमे पुनः फासिटीवादका जन्म न हो सके । उनका विचार है कि जबतक यह अर्थनीति रहेगी उसका भय पुन -पुन उपस्थित होता रहेगा। यह विचारक इसलिए किसी निश्चित योजनाके आधारपर किसी अर्थनीतिका निर्माण नही चाहते । यह सबसे अधिक महत्त्व लोकतन्त्र, मानव-स्वतन्त्रता तथा व्यक्तित्त्वकी परिपूर्णताको देते है और क्योकि इनके मतमे ऐसी अर्थनीति इन सिद्धान्तोकी पोषक नही है, वरच उसके द्वारा इनको क्षति पहुँचती है, अत वह ऐसी अर्थनीतिके विरोधी है। वह जानते है कि पूंजीवादी समाजमें विपमता और अस्त-व्यस्तता रहती है, किन्तु इनके मतमे यह सव वर्दाश्त किया जा सकता है यदि मानव-स्वतन्त्रताकी रक्षा हो सके । इसी कारण कुछ विचारक स्वच्छन्द व्यवसायके पक्षपाती है । अमेरिकाका उदाहरण देकर वह यह सिद्ध करना चाहते है कि साधारण जनकी आर्थिक अवस्था पूँजीवादी समाजमे भी उन्नत हो सकती है । उनका विचार है कि गैरसरकारी व्यवस्था अच्छी और सस्ती होती है और उससे स्वतन्त्रताकी भी रक्षा होती है। इनका कथन है कि लोकतन्त्रका आधार आर्थिक क्षेत्रकी स्वतन्त्रता ही है और यदि राज्यका नियन्त्रण आर्थिक क्षेत्रपर होता है तो उससे लोकतन्त्रका ह्रास होता है । थोडेसे ऐसे विचारकोकी दलीलोका खण्डन करना कुछ कठिन नही है । यह अवश्य सच है कि निश्चित योजनाके आधारपर निर्मित अर्थनीतिसे लोकतन्त्रको भय है, किन्तु ऐसा नही है कि इस भयके निराकरणका कोई उपाय नही है । पुन जव यह स्पष्ट है कि आजके युगमे ऐसी अर्थनीतिको अपनाना अनिवार्य हो गया है, तो उसके दोपोके निरसनका उपाय सोचना ही पडेगा । हमारे मतमे ऐसी अर्थनीति और लोकतन्त्र तथा मानव- स्वतन्त्रताके बीच सामञ्जस्य स्थापित हो सकता है । इस सम्वन्धमे कई सुझाव रखे गये है । कुछ व्यवसाय ऐसे है जिनका केन्द्रीकरण नितान्त आवश्यक है। किन्तु अन्य व्यवसायोका विकेन्द्रीकरण होनेसे लोकतन्त्रको व्याघात नही पहुँचता । पुन कार्पोरेशन तथा स्थानीय जन-सस्थाअोके अधीन व्यवसायोको लेकर लोकतन्त्रकी रक्षा हो सकती है । सहयोग समितियोहारा विविध छोटे व्यवसायोको सचालित करनेसे भी अधिनायकत्व- का दोप बचाया जा सकता है। पुन. सामान्य जनता लोकतन्त्रके महत्त्वको तभी समझ सकती है जब उसके रोटी- कपडेका प्रश्न हल हो । अमेरिकाका उदाहरण सर्वत्र लागू नहीं होता। वह लोकतन्त्र अधूरा है जो समाजकी आर्थिक विषमताको दूर करनेमे असमर्थ है । जो तृप्त है, जिनके