पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/४७१

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४५८ राष्ट्रीयता और समाजवाद आगे कोई ऐसी कठिन आर्थिक समस्या नहीं है, वह अवश्य मानव अधिकारोकी स्वतन्त्रताका महत्व समझते हैं । किन्तु जो वेकार है अथवा आर्थिक कष्टमे है वह केवल भाषणकी स्वतन्त्रतासे सन्तुष्ट नही हो सकते । सामान्य जनकी सास्कृतिक उन्नतिके लिए उसकी आर्थिक स्थितिकी उन्नति आवश्यक है । कुछ ऐसे भी विचारक है जिनका विश्वास मनुष्यपरसे उठ गया है । नैतिकताका ह्रास देखकर ही उनकी आस्था उठ गयी है । पहले ईश्वरमे 'लोगो' का अटल विश्वास था। विज्ञानने इस विश्वासको खोखला बना दिया और १९ वी शतीमे मानवकी प्रतिष्ठा हुई तथा जीवनमें नये मूल्योकी स्थापना और जीवनके नये मूल्योकी सृष्टि हुई । इनमें ही मानव-स्वतन्त्रता और लोकतन्त्र है । किन्तु संहारके नये साधनोके प्रयोगसे तथा सत्यकी अप्रतिष्ठा होनेसे हमारे आदर्श भी नप्ट हो रहे है । आज लोग यथार्थवादकी पूजा करते है और आदर्शवादियोको मूर्ख और पागल समझते है । परिस्थितिके अनुसार आचरण करना ही सवसे बडी बुद्धिमत्ता समझी जाती है; मानो जीवनका कोई गम्भीर उद्देश्य ही नही रह गया है ! मानव-बुद्धिपरसे इन विचारकोका विश्वास उठ-सा गया है और वह लोकतन्त्रको उचित प्रेरणा देनेमे अपनेको असमर्थ पाते है । इससे भी गम्भीर किसी आदर्शकी उनको तलाश है । वह पुन धर्ममे शरण लेते है । यूरोपके विचारक ईसाई धर्मको पुनः स्थापना करना चाहते है ? उनका विचार है कि ईसाई धर्मसे ही लोकतन्त्र तथा समताके सिद्धान्त निकले है । अत स्वभावतः उनकी दृष्टि ईसाई धर्मकी ओर जाती है । पोपके शासनमे शान्ति भी थी और विविध राज्योके बीच मैत्री भी। आज वह देखते है कि विविध राज्य एक-दूसरेके वैरी है और वह यह भी समझते है कि किसी एक राज्यका समस्त संसारपर आधिपत्य कायम करके विश्व-शान्ति नही हो सकती। अतः वह पोपका शासन फिरसे प्रतिष्ठित करना चाहते है । कुछ विचारक अध्यात्मवादमे ही शान्ति पाते है । हमारे मतमे मानवके ऊपर इतना अविश्वास करनेका कोई कारण नहीं है । जीवनके नये सामाजिक और आध्यात्मिक मूल्य प्रेरणा देनेके लिए पर्याप्त है । इन मूल्योपर जिनका अटल विश्वास है वह उनपर उसी प्रकार दृढ रह सकते है, जिस प्रकार धार्मिक व्यक्ति दु ख-यातना भोगते हुए भी अपने धार्मिक विश्वासपर अटल रहता है । आजके युगमे सामाजिक अवस्थाका पूर्ण परिचय प्राप्त कर रचनात्मक क्रान्तिकारी योजनाओको कार्यान्वित करनेकी क्षमता रखनेवाला व्यक्ति ही कुछ कर सकता है । सामाजिक सगठनमे विना महान् परिवर्तन किये हमारा जिन्दा रहना भी कठिन है । समाजके प्रश्न धर्मके दामनमें मे मुंह छिपानेसे हल नही होगे । समाजकी उन्नति करनेका एक वैज्ञानिक तरीका है। उसको अपनाना होगा। पोपका शासन फिरसे प्रतिष्ठित नही हो सकता। हाँ ! उसके प्रभावका दुरुपयोग प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ आज भी कर रही है । इस विज्ञानके युगमे रहस्यवादकी प्रतिष्ठा करना कठिन है । विज्ञानका सदुपयोग कीजिये; समाजमे आदर्शोकी प्रतिष्ठा कीजिये; मनुष्यके चारित्र्यकी ओर ध्यान दीजिये; न कि विज्ञानको छोड़ कपोल- कल्पित वातोको फिरसे जिन्दा कीजिये । मनुप्यके चारित्यपर उसकी परिस्थितिका प्रभाव अवश्य पडता है, किन्तु व्यक्तिगत चरित्रके गठनकी ओर भी ध्यान देना चाहिये।