पृष्ठ:राष्ट्रीयता और समाजवाद.djvu/४८७

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४७४ राष्ट्रीयता और समाजवाद स्तरके लोगोंकी दरिद्रताको और आर्थिक विषमताको समाजसे सदाके लिए उन्मूलित करके ही हम सच्चे अहिंसक कहला सकते है । यह महात्मा गांधीजीकी विणेपता ही थी। हमारे देशकी यह प्रथा रही है कि महापुरुपके जन्म निधनके बाद हमने उसको देवताकी पदवीसे विभूपित किया । समाधि और मन्दिर बनाये । उसकी मूर्तिको मन्दिरोमें प्रतिष्ठित किया या मजार बनाकर उसकी समाधि या मजारपर प्रेम और श्रद्धाके फूल चढाकर हम सन्तुष्ट हो गये । इसी प्रकारसे भारतवासियोने अनेक महापुरुपोंकी केवल उपासना और आराधना करके उनके मूल उपदेशोको भुला दिया । मैं चाहता हूँ कि हम अाज महात्मा गाधीको देवत्वकी उपाधि न दे, क्योकि देवत्वसे भी ऊँचा स्थान मानवताका है। मानवकी आराधना और उपासना समाधि-गृह पीर मजार बनाकर, उनपर फूल चढ़ाकर नही होती। दीपक, नैवेद्यसे उसकी पूजा नहीं होती, मानवको आराधना और उपा- सनाका प्रकार भिन्न है । अपने हृदयोको निर्मल बनाकर और उनके बताये हुए मार्गपर चलकर ही उसकी सच्ची उपासना होती है । यदि हम चाहते है कि हम महात्मा गाधीके अनुयायी कहलाये तो हमारा यह पुनीत कर्तव्य है कि जनतामे अपने प्रेम और श्रद्धाके भावोका प्रदर्शन करनेके साथ-साथ हम उनका जो अमर सन्देश है, उसपर अमल करे । उनका सन्देश केवल भारतवर्पके लिए नही, वरन वर्तमान संसारके लिए है, क्योकि आज संसारका हृदय व्यथित है, दुखी है । एक नये महायुद्धकी रचना होने जा रही है। उसकी पूर्व सूचनाएँ मिल चुकी है । ऐसे अवसरपर संसारको एक नूतन आदेश और उपदेशकी आवश्यकता है। महात्माजीका बताया हुआ उपदेश जीवनका उपदेश है, मृत्युका सन्देश नही है । और जो पश्चिमके राष्ट्र आज सकुचित राष्ट्रीयताके नामपर मानव-जातिका वलिदान करना चाहते है, जो सभ्यता और स्वाधीनताका विनाश करना चाहते है, वे मृत्युके पथपर अग्रसर हो रहे है, वे मृत्युके अग्रदूत है। यदि वास्तवमे हम समझते है कि हम महात्माजीके अनुयायी है तो हमारी सबकी सच्ची श्रद्धाञ्जलि यही हो सकती है कि हम इस अवसरपर शपथ लें, प्रतिज्ञा करे कि हम आजीवन उनके बनाये हुए मार्गपर चलेगे, जो जनतन्त्रका मार्ग, समाजमे समता लोनेका मार्ग, विविध धर्मो और सम्प्रदायोमे सामञ्जस्य स्थापित करनेका मार्ग है, जो छोटे-छोटे मानवको भी समान अधिकार देता है, जो किसी मानवका पक्ष नही करता, जो सवको समान रूपसे उठाना चाहता है । यदि महात्माजीके बताये हुए मार्गका हम अनुसरण करते तो एशियाका नेतृत्व हमारे हाथोमें होता और हमारा देश भी दो भूखण्डोमे विभाजित नही हुआ होता । हम एशियाका नेतृत्व करेगे, किन्तु इस गृह-कलहके कारण हमारा आदर विदेशोमे वहुत घट गया है । इसलिए यदि उस नेतृत्वको ग्रहण करना चाहते है तो हमको अपने देशमे उस सन्देशको कार्यान्वित करना होगा । भारतवर्षमे वसनेवाली विविध जातियोमे एकताकी स्थापना करके हमको ससारको दिखा देना चाहिये कि हम सच्चे मार्गपर चल रहे है । तभी सारा ससारे हमारा अनुसरण करेगा। महात्माजीके लिए जो सोचते है कि वह अन्तर्राष्ट्रीय व्यक्ति नही थे, उनका काम भारतवर्पतक ही सीमित था, यह उनकी भूल है । भारतवर्ष तो उनकी प्रयोगशालामात्र