गाधीजी ४७५ था। वह समझते थे कि यदि सत्य और अहिंसासे वह देशमे सफलता प्राप्त कर सकेगे, तो उनका सन्देश ससारमे फैलेगा। मैं अपनी श्रद्धाञ्जलि महात्माजीको अर्पित करता हूँ और प्रार्थना करता हूँ कि मुझमें शक्ति पैदा हो कि मैं उनके बताये हुए मार्गका अनुसरण किसी-न-किसी अंशमे कर सकूँ। गांधीजी गांधी इस युगके एक अद्वितीय पुरुष थे । वे क्या थे, यह किसी लक्षणसे लक्षित नही कराया जा सकता, न उन्हें किसी विशिष्ट वर्गमे बैठाया जा सकता है। उनके राजनीतिक तत्वज्ञानमे एक प्रकारका अराजकतावाद था, क्योकि राज्य-सस्थामे उनको विश्वास नही था, पर अन्य किसी बातमे पश्चिमके अराजकतावादियोके साथ उनका कोई साम्य नही था। वे समाजवादी थे, पर वैज्ञानिक समाजवादके मानदण्डसे जाँचनेपर उनके विचार समाजवादकी मान्यताओके साथ न विचारमे मिलते थे न पाचारमे ही । सामान्यतः व धार्मिक प्रवृत्तिके पुरुष माने जाते थे पर न तो उन्हे धार्मिक सस्थानोपर विश्वास था न हिन्दूधर्मके प्राचारोका ही वे पालन करते थे। यदि आजसे दो शताब्दी पहले उनका जन्म हुआ होता तो या तो वे कोई बहुत बड़े महात्मा और किसी धर्ममतके सस्थापक हुए होते अथवा कल्पना-साम्राज्यमे विचरनेवाले कोई समाजवादी होते । पर वे ऐसे समयमे हुए जो अति क्षिप्र सामाजिक परिवर्तनोका समय रहा और उन्होने यह देखा कि समतायुक्त समाजका स्वप्न इस समय सच्चा हो सकता है। मुख्यत. वे मानवहित-साधनके व्रती थे। मनुष्यकी अन्तस्थ सद्वृत्तिपर उनका अटल विश्वास था। मानव-जातिसे प्रेम उनके जीवनका विधान और नियम था। सेवा विशेषत. पीड़ितोकी, सत्य और अहिंसा; ये ही उनके सामाजिक तत्त्वज्ञानके घटक थे; पर उनकी यह तत्त्वनिष्ठा केवल भावुक और तात्त्विक नहीं, बल्कि अत्यन्त व्यावहारिक थी। वे सत तो थे ही, पर इससे भी अधिक वे द्रप्टा थे और निरन्तर नि स्वार्थ कर्ममें उनकी श्रद्धा थी। सासारिक जीवनसे विरक्त होनेके वजाय वे समाजके जीवनमे वैयक्तिक जीवनकी परिपूर्णता ढूंढते थे। उनका हृदय कोमल था और थे वे बड़े सूक्ष्मदर्शी। उनकी कथनी और करनीमे कोई विरोध नही था। अपने जीवनकी प्रयोगशालामे वे सत्यके प्रयोग किया करते थे। समाजकी हिंसावृत्तिके मूल कारणोका उन्होने जो अनुसन्धान किया उससे वे इस नतीजेपर पहुँचे कि जवतक मनुष्य के द्वारा मनुष्यका शोपण होता रहेगा तवतक अहिंसाका विधान स्थापित नहीं हो सकता । अहिंसाका व्रत उनके अपने वैयक्तिक जीवनका ही नियम नहीं था, प्रत्युत वे इसे सम्पूर्ण समाजके जीवनका भी नियम बनाना चाहते थे। साध्यकी अपेक्षा साधनके विषयमे उनका विशेष आग्रह था। नित्य-नैमित्तिक जीवनकी विभन्न परिस्थितियोमे वे अहिंसाके अपने सिद्धान्तका प्रयोग करते थे। बुराईका
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