राष्ट्रीयता और समाजवाद (एकाधिकार) समाप्त कर दी गयी और अंग्रेजोंको हिन्दुस्तानमे आनेकी खुली इजाजत दे दी गयी । इस प्रकार भारतमे विदेशी पूंजी लाने और लगानेकी छूट मिल गयी। इङ्गलैण्डकी मशीनोंसे बना माल धड़ाधड़ भारत आने लगा । भारतीय उद्योग यो ही बुरी दशामें थे ; इस खुली प्रतिद्वन्द्विताने उनपर घातक प्रभाव डाला। ब्रिटिश शासनने अपनी निश्चित नीति बना ली कि भारतके उद्योगोको कोई प्रोत्साहन न दिया जाय और इसे उपनिवेश बनाकर रखा जाय, जहाँसे कच्चा माल लिया जाय और जहाँ इङ्गलैण्डका वना माल लाकर खपाया जाय । भारतको ब्रिटिश मालकी मंडी बना लिया जाय । ब्रिटिश जमीदार वर्गके ढगपर बङ्गालमे एक नया जमीदार वर्ग भी खड़ा किया गया। देशकी जो पूंजी पहले उद्योग व्यापारमें लगी थी, वह अव जमीनमे लगायी जाने लगी। अब जो कोई व्यक्ति समाजमे अपनी प्रतिष्ठा बनाना चाहता था वह इस बातके लिए प्रयत्नशील होता कि वह जमीनका मालिक बने । इनमेंसे जो लोग अंग्रेजी पढे थे, वे ऐसे व्यवसायोकी अोर झुके जिनमें शिक्षित लोगोकी आवश्यकता थी। वे सरकारी नौकरी पानेके लिए प्रयत्नशील हो उठे । ये दोनो वर्ग नये वुर्जुया वर्गके अाधार बने । यही वह वर्ग था जिसे विदेशी शासनसे विशेष प्रेम था। जिस प्रकार बालक अपने बुजुर्गोके आश्वासनोपर विश्वास कर लेता है उसी प्रकार यह वर्ग ब्रिटिश सरकारके आश्वासनोंपर पूर्णतः विश्वास करता था। प्रेसिडेन्सी नगरोमें राजनीतिक संस्थानोंको जन्म दिया गया और कुछ वर्षोके उपरान्त कुछ प्रमुख नेताअोने इस बातकी चेष्टा की कि शिक्षित भारतीयोंका एक अखिल भारतीय संघटन बनाया जाय । अवसर प्राप्त सरकारी अफसर श्री ए० ओ० ह्य म भी स्वतन्त्र रूपसे विचार करते-करते इसो निष्कर्पपर पहुँचे । खुफिया पुलिसकी गुप्त रिपोर्टोद्वारा उन्हें ऐसा पता चला कि जनतामे असन्तोपकी भावना दिन दिन उग्रतर होती जा रही है और अनेक स्थानोके किसान विद्रोह करनेपर तुल-से गये हैं। राम साहव नही चाहते थे कि गदरको पुनरावृत्ति हो । अन्तमें वे इसी निष्कर्पपर पहुंचे कि असन्तोप मिटानेका उपाय यही है कि उसे वैधानिक रूप दिया जाय और यह कार्य शिक्षित वर्गका संघटन करनेसे ही हो सकता है। श्री ह्य मने इङ्गलैण्डस्थित रिटायर्ड एंग्लोइण्डियनोंसे और तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड डफरिनसे इस विषयमें परामर्श किया । ह्य म साहवका विचार था कि प्रमुख भारतीय राजनीतिज्ञ वर्षमें एकवार मिलकर सामाजिक समस्यायोपर विचार-विनिमय करें और परस्पर मैनीकी भावना दृढ़ करे । वे यह भी चाहते थे कि प्रान्तीय गवर्नर इस सभाकी अध्यक्षता करे जिससे सरकारी अधिकारियोंमें और लोकनेतायोमे पारस्परिक सौहार्दकी वृद्धि हो। पर लार्ड डफरिनका मत इससे भिन्न था । उनका सुझाव था कि नया सगठन विरोधी पक्षका कार्य करे। श्री राम एवं प्रमुख राजनीतिज्ञोने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और इस प्रकार सन् १८८५ ई०मे भारतीय राष्ट्रीय काग्रेसका जन्म हुआ । १९१३मे श्री गोखलेने कहा था कि किसी भारतीयके लिए यह सम्भव नही था कि वह कांग्रेसको जन्म देता। कारण, राजनीतिक आन्दोलनके सम्बन्धमे इतना अधिक विश्वास था कि अधिकारी कभी भी ऐसी संस्थाका संघटन न होने देते।
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