जन-जागृतिका पुनर्जन्म इससे यह स्पष्ट है कि श्री रा मने ब्रिटिश राज्यके हितमें ही कांग्रेसको स्थापित करनेका प्रयत्न किया। शासकोको जनताको भावनाका ज्ञान नही था, वे प्राचीन परम्पराके अनुयायियोपर भी विश्वास नही कर सकते थे। अपने शासनको कायम रखनेके लिए वे उन नये शिक्षित युवकोकी ओर ही आशाभरी दृष्टि लगाये थे जिन्होने उनके अंग्रेजी स्कूलोमे पश्चिमी दंगकी शिक्षा प्राप्त की थी। हमारे शासकोने पूर्वीय और पश्चिमीय शिक्षा-पद्धतियोकी राजनीतिक प्रवृत्तियोंका बार-बार विश्लेषण किया और अन्तमे वे इसी निकर्षपर पहुँचे कि देशी शिक्षा-पद्धतिकी अपेक्षा पश्चिमी शिक्षा-पद्धति ही ब्रिटिश हितोके अधिक अनुकूल है । सर चार्ल्स ट्रवेलियन अपनी पुस्तक 'पान दि एडुकेशन प्राव दि पीपुल आव् इण्डिया' (१८३८) मे लिखते है-'भारतीयोको जबतक अपनी पूर्वस्वाधीनतापर विचार करनेका अवसर मिलता रहेगा तबतक अपनी स्थितिमे सुधार करनेका केवल एक ही उपाय उनकी समझमे आवेगा और वह होगा—सभी अंग्रेजोको तत्काल देशसे निकाल बाहर करना। प्राचीन पद्धतिसे पले-पनपे भारतीय देशभक्तके हृदयमे इसके अतिरिक्त और किसी भावनाका उदय हो ही नही सकता । वह मान ही नहीं सकता कि इसके अतिरिक्त और भी कोई उपाय हो सकता है जिससे उसके देशकी गयी हुई प्रतिष्ठा और समृद्धि पुनः लौट सके । अन्य किसी उपायकी ओर उसका ध्यान आकृष्ट ही नही किया गया है । यूरोपियन विचार-धाराका प्रवेश करके ही इन राष्ट्रीय भावनाप्रोको नयी दिशामे मोड़ा जा सकता है।' (पृष्ठ १६१) एक अन्य स्थानपर आप लिखते है-"वर्तमान स्थितिको देखते हुए यही कहा जा सकता है कि इङ्गलैण्ड और भारत जैसे दो दूर देशोके बीच वर्तमान सम्बन्ध स्थायी नही रह सकता । भारतवासी तो अपनी गयी हुई स्वतन्त्रता लौटा ही लेगे। किसी भी तरहकी नीतिसे इसमे बाधा नही डाली जा सकती । पर इस स्थितितक पहुँचनेके दो मार्ग है- एक तो है क्रान्तिद्वारा और दूसरा है सुधारद्वारा । क्रान्तिका आन्दोलन आकस्मिक और भीषण है । सुधारका मार्ग मन्द गतिवाला और शान्त है । पहलेमे हमारी पतग एकवारगी ही कट जायगी, भारतवासियोसे हमारा पूर्णत. सम्बन्ध विच्छेद हो जायगा, पर दूसरेमे पारस्परिक लाभ और सद्भावके आधारपर हमारा सहयोग स्थायी हो सकता है । पहले मार्गको वन्द करने और दूसरे मार्गपर अग्रसर होनेका हमारे पास एक ही उपाय है और वह यह कि हम भारतीयोको यूरोपियन सुधारोकी पद्धतिपर ले चले । उस ओर उनकी विशेष रुचि भी है । तव वे पुराने ढगकी स्वतन्त्रता प्राप्त करनेकी भावना और विचारका परित्याग कर देगे। उस स्थितिमे आकस्मिक क्रान्ति असम्भव होगी और तव निश्चित रूपसे भारतके साथ दीर्घकालतक हमारा वर्तमान सम्बन्ध दूसरी प्रकारसे बना रहेगा।" (पृष्ठ १९२-१९३) यही वह प्रधान कारण था जिसकी वजहसे ऐसे समय, जबकि भारत एक संघर्षके भीतरसे होकर गुजर रहा था, शासकवर्ग शिक्षित भारतीयोकी एक सस्था स्थापित करनेमें सहायता कर रहा था और यह संस्था इसलिए थी कि भारतीय अपनी कठिनाइयाँ उसके
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