पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/१०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ९५ )

अरु थापे व सुखधाम' कहकर समाप्त हो जाता है । अस्तु, प्रत्यक्ष है कि सागर का प्राकृतिक सौन्दर्य 'मानस' में नहीं है।

तुलसी की अपेक्षा उनके पूर्ववर्ती जायसी ने अपने 'पदमावत' में सागर का कुछ अधिक रूप दिखाने की चेष्टा की है। योगी राजा रतनसेन और उनके साथी योगियों की सिंहल यात्रा वाले 'बोहित खण्ड' ( १४ ) में ---

समुद अपार सरग जनु लागा । सरग न घाल गनै वैरागा ।।
ततखन चाल्हा एक देखावा । जनु धौलागिरि परत यावा ।।
उठी हिलोर जो चाल्ह नराजी । लहरि अकास लागि भुइँ बाजी ।।

इसके उपरान्त बड़ी मछलियों और राज पंखियों की कौतूहल-पूर्ण चर्चा है। और आगे सिंहल-कुमारी पद्मावती से परिणय करके समुद्र मार्ग से घर लौटते हुए राजा रतनसेन वाले 'देश यात्रा खंड' ( ३३ ) में कवि को सागर के प्रसंग में भँवर कुड वर्णन करने का एक अवसर और मिल गया है :

जहाँ समुद मधार मँढारू । फिर पानि पातार दुवाल ।।
फिरिफिरि पनि ठाँव ओहि मरै । फेरि न निकसे जो तहँ परे ।।

साथ महिरावण-पुरी आदि का भी ललित प्रसंग है ।

वस्तु-वर्णन में संस्कृत और अपभ्रंश के कवि अधिक निष्ठ पाये जाते हैं। क्रान्तदशी आदि कवि वाल्मीकि ने समुद्र का वर्णन इस प्रकार किया है- 'जो न और ग्राह के कारण भयंकर है, दिन की समाप्ति और रात्रि के प्रारम्भ में जो फेनराशि से हँसता हुआ तथा लहरियों से नाचता हुआ सा प्रतीत होता है । जो चन्द्रोदय के समय प्रत्येक लहर में चन्द्रमा के प्रति- बिम्ब होने से चन्द्रमय दीख पड़ता है और जो प्रचंड वायु के समान वेग वाले बड़े-बड़े ग्राह तथा तिमि तिभिङ्गलों से भरा हुआ हैज । उसमें प्रदीप्त फणवाले सर्प रहते हैं, अन्य अनेक बड़े बली जलचर भरे अनेक पर्वत छिपे हुए हैं। असुरों का निवास स्थान यह समुद्र अगाध है, जलचरों के कारण दुर्गम है तथा नौका आदि के द्वारा इसके पार जाना सम्भव है; मकर तथा सर्प के शरीर के समान प्रतीत होने वाली इसकी लहरें प्रसन्नता के साथ ऊपर उठतीं और नीचे जाती हैं। चमकीले जल के छोटे-छोटे कण बिखरे हुए अमृत-चूर्य के समान विदित होते हैं, इसमें बड़े-बड़े सर्प और राक्षस निवास करते हैं तथा यह पाताल सदृश गहरा है । इस प्रकार सागर आकाश के समान और नाकाश सागर के समान जान पड़ता है, उनमें कोई भेद नहीं दिखाई देता । सागर का जल आकाश