पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/१०६

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में छू गया है और आकाश सागर को छू रहा है यस्तु तारा और रत्न युक्त वे दोनों समान देखे जाते हैं । आकाश में मेघ उठ रहे हैं और सागर में लहरें जिससे उनमें भेद हो गया है। सागर की लहरें परस्पर टकराकर भयंकर गर्जन कर रही है मानों आकाश में नगाड़े बजते हों ।

अपभ्रंश के कविर्मनीषी स्वयम्भु देव ने अपने 'पउम चरिउ' ( रामायण ) में समुद्र का प्रभावोत्पादक वर्णन किया है। कुछ अंश देखिये :

चल्लेउ राहव साहरोग । संघट्टिउ वाहणु वाहणेण ।
थोवंतरे दिट्ठु महासमुद्र । सुंमुबर मवर जलयर रउछ ।
मच्छोहरु -एक्क- गोहु वोरु । कल्लोलावंतु तरंग थोर ।
बेला बडढंतउ दुहुदुहतु । फेणुज्जल-तोय तुषार दिंतु ।
तहो अवरे पयडउ राम-सेण्णु । णं मेह-जालु राहवले सि ।। ५६९,

सम्भोग--

पूर्व राग द्वारा वरण और तदुपरान्त हरण कालीन संयोग का एक दृश्य देखिये --' ( पृथ्वीराज और शशिवृता की ) दृष्टियाँ परस्पर मिलीं, उत्कन्दा तुष्ट हो गई; बाला के नेत्र लज्जापूर्ण हो गए और वह कामराज की माया के रस में लीन हो गई... उसका महान सन्ताप मिट गया और दोनों के मन प्रसन्नता से छलक उठे। फिर तो चौहान ने उस किशोरी का हाँथ क्या पकड़ा मानों मदान्ध गजराज ने स्वर्ण-लता को लहरा दिया' :


( १ ) रामायण, युद्धकाण्डम्, सर्ग ४--
चनक्रमाह घोरं क्षपादौ दिवसक्षये ।
सन्तमिव फेनौधै स्यन्तमिव चोभिभि: ॥११०
चन्द्रोदये समुद्भूतं प्रतिचन्द्रसमाकुलम् ।
चानिल महाप्राहैः कीर्य तिमि तिमिगिलैः ॥ १११
दीप्तिभोगैरिवाकीर्ण भुजंगैर्वरुणालयम् ।
महासत्त्वैर्नाना शैलसमाकुलम् ॥ ११२
श्लोक ११३-१६ तथा-
समुत्पतित मेवस्य वीचि मालाकुलस्य च ।
विशेषो न द्वयोरासीसागरस्याम्बरस्य च ।। ११७
अन्योन्यैरहताः सक्ताः सस्वनुर्भीमनिः स्वनाः ।
कर्मय: सिन्धुराजस्य महाभेर्य इवाम्बरे ।। ११५: