पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/१०७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ९७ )

दिट्ठ दिट्ठ लगी समूह । उतकंठ सु भरिय ।।
निष लज्जानिय नयन । मयन माया रस पग्गिय ।।
छल वल कल चहुआन । बाल कुवरप्पन भंजे ।।
दोष त्रीय मिट्टयौ । उभय भारी मन रंजे ।।

चौहान हथ्थ बाला गहिव । सो श्रोपम कवि चंद कहि ।।
मानों कि लता कंचन लहरि । मत्त वीर गजराज गहि ।। ३७४, स० २५

उत्साह के बाद रासो में रति भाव को ही स्थान मिला है जिसमें संयोग-शृङ्गार की अधिकता के कारण सम्भोग के अनेक अप्रतिम रूप देखने को मिलते हैं ।

विप्रलम्भ--

संयोगिता से गन्धर्व विवाह करके, जयचन्द्र के गंगातट वाले महत से जब पृथ्वीराज अपने सामंतों को घेरे हुए पंगराज की सेना से युद्ध करके अपने दल में चले गये, उस समय दुश्चिन्ताओं से पूर्ण शंकित हृदय राज कुमारी संज्ञा शून्य हो गई। 'सखियाँ पंखा कर रहीं थीं, बनसार ( कपूर ) और चंदन के लेप किये जा रहे थे । अनेक उपाय हो रहे थे परन्तु चित्र लिखी सी वह बाला अचेत पड़ी थी । उसके मुँह से हाय शब्द निकल पड़ता था । जब सखियों उसके कान में पृथ्वीराज के नाम का मंत्र सुनाती थी तब वह बलहीना क्षण भर की अपनी आँखें खोल देती थी' :

बाली बिजन फिरन । चंद चारी क्रितम रस ।।
के घन सार सुधारि । चंद चंदन सो भति लस ।।
बहु उपाय बल करत । बाल चेतै न चित्र मय ।।
है उचार उचार । सखी बुल्लपति हयति हय ।।

अपने सुनाइ जपै सुति । नाम मंत्र प्रथिराज बर ।।
आवस निवत अगाद भय । तं निबलह द्विग छिनक कर ॥ १२६५, स०६१

मुनि--

(अ) ढुंढा दानव ने योगिनिपुर में यमुना तट पर हारीफ ऋषि को देखा जिन्होंने उसे तपस्या करने का उपदेश दिया---

ढिंग जुगिनिपुर सरित तट । अचधन उदक सु श्राय ।।
लहं इक तापस तप तपत । बीली ब्रझ लगाय ।। ५६०
ताली पुल्लिय ब्रह्म । दिविष इक असुर अदभुत ॥
दिव देह चष सीस । मुष्ष करुना जस जप्यत ॥