पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/१०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ९८ )

तिनि रिपि पूलिय ताहि । कवन कारन इत अंगम ।।
कवन थान तुम नाम । कवन दिसि करबि सु जंगम ।।
मो नाम ढुढ बीसल नृपति । साप देह लम्मिय दयत ।।
सुह सु तेह गंगा दरस । तजन देह जन संत कृत ।। ५६१....
तब मुनि बर हसियौं कहिय । बिन तप लहिय न राज ।।
अन धन सुत दारा मुदित । लहौ सबै सुख साज ।। ५६४...

मुनि के इस उपदेश का फल यह हुआ कि ढुंढा ने तीन सौ अस्सी वर्ष तक तपस्या की :

तपत निसार तप्पं । बीते वरष तीन से असीयं ।।
भय वाधा विरा अगं । लग्गो राम धारना ध्यानं ।। ३६७, २०१

( ब )एक वन में एक ऋषि का मिलन और उनका रूप देखिये :
तहा सु अवतर रिष्क इक । कस तन अंग सरंग ।।
दव दद्धौं जनु द्रुम्म कोइ । कै कोई भूत भुअंग ।। १७
जप माला मृग छाला । गोटा विभूतं जोग पट्टायं ।।
कुविजा खप्पर हथ्थं । रिद्ध सिद्धाय बच्चनयं मम ।। १८, स०६

(स) एक बन में श्राखेट करते हुए पृथ्वीराज ने पर्वत की कन्दरा में सिंह के अम धुआ करवाया जिससे क्रोध में भरे सुनि निकले और उन्होंने राजा को श्राप दे दिया :

कोमल सु कमल द्रग भवै नीर । रद चंपि अधर कंपत सरीर ।।
जट जूट छूटि उरत पाय । म्रग चरम परम नंष्यौ रिसाय ।। १५३ तमिवोरिडारि दिय श्रच्छ माल । निकरथौ रिषीस बेहाल हाल ।।
गहि दर्भ हस्त बर नीर लीन । प्रथिराज राज कहुँ श्राप दीन ।। ह१५४, स०६३

स्वर्ग--

स्वर्ग का वर्णन पृथक रूप से नहीं किया गया है। स्वामि धर्म का पालन करते हुए युद्ध में वीरगति पाने वालों का स्वर्ग-गमन कवि ने बड़े उत्साह से वर्णन किया है । योद्धाओं का रण कौशल देखकर कहीं 'जै जै सुर सुर लोक जय' हो उठता है, कहीं अप्सरायें देव वरण त्याग कर लोक- युद्ध भूमि में बीर-वरण हेतु थाती हैं --( वर अच्छर बिंदौ सुरग मुक्के न सुर गहिय ), कहीं किसी के मृत्यु-पाश में जाते ही अप्सरायें उसे गोद मैं ले लेती हैं और वह देव- विमान में चढ़कर चल देता है-- ( उच्छृंगन अच्छरसों लयो, देव विमानन चढ़ि गयौ ), कहीं याओं को युद्ध में