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विवाह की शेष शास्त्रीय रीतियाँ विधिवत् पूरी कर ली जाती हैं। प्रथम ढंग के विवाहों में कवि ने यदि पुरातन होते हुए भी युगीन संस्कार की नूतन प्रादेशिक विधियों और रीति-रिवाजों पर विस्तृत प्रकाश डालने का अवसर पाया है तो दूसरे में पूर्वराग, मिलन की युक्तियाँ, विप्रलम्भ, विराग, मोह, विस्मय, उद्यम, साहस, धैर्य यादि का चित्रण करने के कारण सरसता और आकर्षण की अपेक्षाकृत अधिकता है तथा उसका चित्त इनके दर्शन में अधिक रमा है। उसने (स० २५, छं० २६८ में ) अपनी सम्मति भी दे दी है कि गन्धर्व विवाह शूर वीर ही करते हैं । इस सम्मति ने रणानुराग में घुले हुए योद्धाओं को वांछित प्रेरणां श्रवश्य पहुँचाई होगी। खेलने वाले रातो के इस प्रकार के परिणय अपनी स्तम्भित करने की क्षमता रखते हैं ।

मंत्र--

मंत्र-तंत्र की कई होड़ें दिखाने वाले इस काव्य में तांत्रिक करानातें और उनकी युक्तियों की चर्चा तो मिलती है परन्तु जिनके कारण सिद्धि सम्पादित हुई वे मंत्र नहीं बताये गये हैं। मंत्रों के स्थान पर स्तुतियाँ मिलती । मंत्रों और स्तुतियों का आशय लगभग एक ही होता है अन्तर यह है कि मंत्र का आकार छोटा और स्तुति का बड़ा होता है ।

(अ) भैरव मंत्र की दीक्षा और उसकी परीक्षा का निम्न प्रसंग देखिये :

धरि कान मंत्र तीन कविय । परसि पात्र अग्गै चलिय ।।
करबे सुपरिष्षा मंत्र की । रचि आसन अग्गै बलिय ।। २६...
फुनि मंत्रह भैरव जयत । डक्कु गरज्जिय आभ ।। ३०...
गैन गहर गंभीर धुनि । सुनि ससंक भय गात ।।
श्रानन अग गअ गंज हुआ । जानि उलक्का पात ।।३१,स०६

(ब) राजनी दरबार के कवि दुर्गा केदार भट्ट के साथ मंत्र-तंत्र की होड़ में कवि चंद द्वारा देवी सरस्वती की मंत्र रूप में स्तुति इस प्रकार है :

सेत चीर सरीर नीर सुचितं स्वेतं सुभं निर्मलं ।
स्वेतं सति सुभाव स्वेत समितं हंसा रसा आसनं ।
बाला जागुन वृद्धि मौर सुभितं त्रिमे सुभं भासितं ।
लंबोजा चिराय चंद्र वदनी दुर्गं नमो निश्चितं ॥ १०८, स०५८

पुत्र--

पृथ्वीराज के गर्भ- स्थिति होने और उनके जन्म उत्सव तथा दान आदि का वर्णन कवि ने 'प्रथम समय' में इस प्रकार किया है :