पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/१३

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पादक, भौगोलिक वृन्त की रहस्यमयी गुफा, सहस्त्रको अज्ञात हिन्दू-मुस्लिम योद्धाओं के पराक्रम का मात्र कोष, प्राकृत-अपभ्रंश कालीन सार्थक अभिव्यंजन करने में क्षम सफल छंदों की विराट पृष्ठभूमि, हिन्दी गुजराती और राजस्थानी भाषायों की संक्रांति कालीन रचना, गौड़ीय भाषाओं की अभिसंधि का उत्कृष्ट-निदर्शन, समकालीन युग का सांस्कृतिक प्रमाण, उत्तर भारत का अार्थिक मानचित्र, विभिन्न मतावलंबियों के दार्शनिक तत्वों का आख्याता, युगीन शकुन-अपशकुन, मंत्र-तंत्र, अंधविश्वास आदि की जी तथा मानव की चित्त-वृत्तियों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषक यह अपने ढंग का एक अप्रतिम महाकाव्य है परन्तु हिन्दी रचनाओं में संभवत: सबसे अधिक विवादग्रस्त है।

पाश्चात्य लेखकों की पढ़ाई इस पट्टी पर कि हिन्दुओं के यहाँ मुस्लिमों की अपेक्षा इतिहास लिखने की कोई पद्धति नहीं थी, योरोपी विद्वान् और उनके भारतीय अनुगामी रासो की परीक्षा करने बैठे क्योंकि उसकी परंपराओं की छाप न केवल परवर्ती साहित्य पर थी वरन् राजस्थान के उत्तर कालीन इतिहास को भी उसने प्रभावित कर रखा था। इधर दुभयवश इस महाकाव्य का प्रणेता कुर बैठा था अक्षम् अपराध ऐतिहासिक काय लिखने का। फिर तो उस बेचारे को कृति का पोस्टमार्टम परम आवश्यक हो गया और बात की खाल खींचकर रासो को अनैतिहासिक सिद्ध करनेवाले प्रमाण खुर्दबीन लगाकर दूड़े गये ।

सर्व प्रथम जोधपुर के मुरारिदान (चारण) ने (जे० आर० ए० बी० बी० एस०, सन् १८७६ ई० में) और फिर उदयपुर के कविराजा श्यामलदास (चारण) ने (जे० आर० ए० एस० वी०, सन् १८८७ ई० में) चंद (भई) के रासो पर शंका उठाई परन्तु चारणों और भाटों के जातीय द्वेष की दुर्गन्धि का आरोप लगने के कारण इनके तक को अधिक बल न मिला । सन् १८७५. ई० में प्रो० बूलर को पृथ्वीराज के दरबार में कुछ बृत्ति तथा सम्मान पाये हुए काश्मीरी जयानक द्वारा प्रणीत पृथ्वीराज-विजय-महाकाव्य की ताड़पत्र-लिखित एक अधूरी प्रति काश्मीर के हस्तलिखित ग्रन्थों की शोध करते समय प्राप्त हुई थी, जिसके अध्ययन का सार निकालते हुए उनके शिष्य डॉ० हर्बट मोरिसन ने (वियना अरियंटल जर्नल, सन् १८६३ ई० में) उसे वंशावली, शिलालेख, घटना आदि के आधार पर ऐतिहासिक और रास को इन्हीं आधार तथा एक बड़ी फारसी शब्द की संख्या के कारण अनैतिहासिक बोर्जित किया तथा मुरारिदान और श्यामनंदास के संत की पुष्ट्रि