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पुरातन कथा-सूत्र

भारतीय आचायों ने ध्वनि, अलंकार, वक्रोक्ति, रस आदि जिसके भी लक्षणों पर प्रकाश डाला है, वे सब काव्य से सम्बन्धित हैं । अज्ञात सनीक्षक ने जब अपना सुप्रसिद्ध सूत्र-- गद्द कवीनां निपां वदन्ति' अर्थात् 'गद्द को कवि की कसौटी कहते हैं' कहा, तब उसका अभीष्ट साधारण गद्य से नहीं वरन् गद्य-काव्य से था । कवि अपने काव्य का सृजन अपनी अनुभूति को प्रत्यय और साधर्म्य द्वारा अभिव्यक्त करके के अर्थ-लोक, अनुभूति-लोक अथवा चेतना-लोक का व्यापकत्व ही आदिकवि वाल्मीकि के शब्दों में उसकी कान्तदर्शिता की परीक्षा है । कवि की अनुभूति को शरीर प्रदान करने वाला अलङ्कार होता है। अनजाने लोकों का अवगाहन अपनी कल्पना द्वारा करता हुआ कवि अलङ्कार द्वारा उन्हें मूर्त करता है । अस्तु, काव्य कल्पना पर आश्रित हैं और कल्पना अलङ्कार द्वारा साकार होती है। यही स्थिति 'कथा-काव्य' में भी है।

कथा का उद्गम निःसन्देह श्रति प्राचीन है परन्तु संस्कृत के आचार्यों ने जिस 'कथा' के लक्षण दिये हैं वह साधारण कथा नहीं वरन् 'कथा- काव्य' है। छठी ईसवी शताब्दी के भामह ने आख्यायिका और कथा का भेद करते हुए कथा का निरूपण इस प्रकार किया है-- 'कथा में वत्र और अपवत्र छन्द नहीं होते, उच्छवासों में इसे नहीं विभाजित करते, संस्कृत, असंस्कृत (प्राकृत) और अपभ्रंश में इसे कहा जा सकता है, स्वयं नायक इसमें अपना चरित्र नहीं कहता वरन् किन्हीं दो व्यक्तियों के वार्तालाप रूप में यह कही जाती है'। परन्तु सातवीं शती के दरडी ने आख्यायिका और कथा को एक पंक्ति में रखकर उनका भेद यह कहकर मिटाया-- 'कथा, नायक कहे चाहे दूसरा, अध्याय विभाजित हों अथवा नहीं और उनका नाम उच्छ बास हो चाहे लम्भ तथा चाहे बीच में यत्र और पवत्र छन्द आयें चाहे न आयें, इन सबसे कोई अन्तर नहीं


१--न वक्त्रापरवकत्राभ्यां युक्ता नोच्छु वासवत्यपि ।

संस्कृतऽसंस्कृता चेष्टा कथाsपत्र शभाक्तथा ।। २८

अन्यैः स्वचरितं तस्यां नायकेन तु नोच्यते ।

स्वगुणाविष्कृतिं कुर्यादभिजातः कथं जनः ।। १, २९, काव्यालङ्कार;