पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/१५

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सुप्रसिद्ध पुस्तक 'दि फाउंडेशन व दि मुस्लिम रूल इन इंडिया' (१९.४५ ई०) के लेखक, इस समय डाका विश्वविद्यालय के इस्लामी संस्कृति विभाग के प्रोफेसर, डॉ० ए० बी० एम० हबीबुल्ला यह बताना क्यों भूल गये कि ये सिक्के मुहम्मद-बिन-साम (गोरी ) की हत्या के उपरांत रानी में ताजुद्दीन-याल्दुङ्ग ने अपने शाज़ी स्वामी के सम्मान में डलवाये थे । क्वायन्स व राज़नावाइड्स ऐन्ड गोरियन्स}, हिस्ट्री व इडिया, इलियट ऐंड डासन, भाग २, अपेंडिक्सडी, नोट ३] । कुतुबुद्दीन ऐबक के सिक्के नहीं मिलते। अनुमान है कि‌ वाल्दुज़ के ढलवाये सिक्के ही ऐबक के शासन काल में चलते रहे जिनमें से पृथ्वीराज और जयचन्द्र के कुछ दिल्ली-संग्रहालय में इस समय सुरक्षित हैं । यह भूलने का विषय नहीं कि कुतुबुद्दीन ऐबक के दरबारी हसन निजामी का ताजुल- असिर और दिल्ली के सुलतान नासिरुद्दीन द्वारा सम्मानित मिनहाजुल्लिराज का नवकाते नासिरी द्वेष और असहिष्णुता से अतिरंजित हैं । सन् ११९२ ई० के तराई' वाले युद्ध के १३ वर्षों बाद अर्थात्सन् १२०५ ई० में जिस वर्ष इतिहास के अनुसार सुलतान गौरी की हत्या हुई थी ‘ताजुल-म सिर' की रचना आरंभ हुई थी और इलियट (वही, भाग २, पृ० २०५) का कथन है कि ऐतिहासिक दृष्टिकोण से उस पर अधिक विश्वास नहीं किया जा सकता ! 'ताज' में लिखा है कि अजमेर का राय बंदी बना लिया गया परन्तु उसके प्राण नहीं लिये गये, फिर एक ड्यंत्र में उसका हाथ पाकर उसका सिर उड़ा दिया गया (वही, इलियट, भाग २, पृ० २१५) । मिनहाज ने तक़ाते नासिरों में लिखा है कि सुईनुद्दीन नामक व्यक्ति शोरी की सेना के साथ ११९२ ई० के तराई वाले युद्ध में था, उसने बताया कि पिथौरा अपने हाथी से उतर कर एक घोड़े पर चढ़ कर भागा परन्तु सरस्वती के समीप पकड़ा गया और मौत के घाट उतार दिया गया (वही, इलियट, भाग २, पृ० २६.७) । पृथ्वीराज की मृत्यु के लेकर सी० बी० बैद्य (हिस्ट्री व मेडीव हिंदू इंडिया, भाग ३, पृ० ३८५) और डाँ० हेमचन्द्र (डाइनेटिक हिस्ट्री अवि इडिया, भाग २) के निष्कर्षों पर हरताल फेरने वाले हबीबुल्ला ऐतिहासिक• भीत तो न उठा सके, अपने द्वेष की छाप अवश्य छोड़ गये । कुवर देवीसिंह ने दिल्ली-संग्रहालय के एच० नेल्सन राइट के सूचीपत्र में मुहम्मद शोरी के एक चाँदी के सिक्के के पट की ओर श्री मुहम्मद बीन साम और चित भाग पर श्री पृथ्वी राज्ञा देव' नागरी लिपि में लिखें होने की चर्चा (ना० प्र० प०, वर्ष ५७, अंक १, सं० २००६, वि०, पृ० ५६ ६० में) करते हुए अपना निष्कर्ष निकाला है-“पृथ्वीराज होराई" के युद्ध में