पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/१६

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सारा नहीं गया, केवल बंदी बना लिया गया था और इसीले उसके नाम का उपयोग हो सका ।' अनुमान है कि याल्दुज़ के ग़ज़नी वाले सिक्कों की भाँति ये सिक्के भी गौरी की मृत्यु के बाद उसके सम्मानार्थ डाले गये होंगे । परमेश्वरीलाल गुप्त ने (ना० प्र० ५०, वर्ष ५७, झक २-३, सं० २००६ वि०, पृष्ठ० २७०-७३ में) लिखा है कि इस प्रकार का सिक्का केवल एक ही ज्ञात है। और यह टकसाल के अधिकारियों की भूल से छप गया है अस्तु देवीसिंह की यह कल्पना कि पृथ्वीराज तराई के युद्ध में बंदी बना लिये गये थे ग्राह्य नहीं जान पड़ती। ‘सिक्का एक ही है और भूल से छप गया है’——यह प्रमाण संगत नहीं प्रतीत होता है देवीसिंह का निर्णय रासो की बात की प्रतिपादन करता है कि तराई वाले युद्ध में धृथ्वीराजे बंदी बनाये गये थे। रासो के अनुसार शोरी को चौदह बार बंदी बनाने वाले पृथ्वीराज उससे उन्नीसवें युद्ध में स्वयं वदो हुए और राजनी में चंद की सहायता से शब्दवेधी बाण द्वारा सुलतान को उसके दरबार में मार कर स्वयं आत्मघात करके मृत्यु को प्राप्त हुए। पृथ्वीराज प्रबंध' में वर्णित है कि सुलतान को एवं बार 8 बद्धव बद्धव मुक्तः, करदश्च कृत;' पृथ्वीराज अतिम युद्ध में अपने मंत्री प्रतापसिंह के षड़यंत्र के कारण बंद किये थाये और पुनः उसी के घड़यंत्र से उन्होंने सुलतान की लौह-मूर्ति पर बाण मारा जिसके फलस्वरूप उन्हें पत्थरों से भरे गढ़ में ढकेल कर मार डाला गया पुरातन प्रबंध संग्रह, पृ० २६-७) । साहित्यिक भावनाओं से वृत्त रास के वृत्तांत में सत्य को अंश अवश्य ही गुम्फित है, ऐसा अनुमान करना अनुचित न होगा ।

सन् १९३६ ई० में बम्बई से एक सिंह गर्जन हुआ (पुरातन प्रबंध संग्रह, प्रास्ताविक वक़व्य, पृ० ८-१०)। जैन-अंथागारों में सुरक्षित पृथ्वीराज और जयचंद्र के संस्कृत प्रबंधों में आये चंद बलद्दिउ (चंद वरदाई) के अपभ्रंश छंदों के आधार पर जिनमें से तीन सभा वाले रासो में किंचित् विकृत रूप‌ में वर्तमान हैं, विश्वविख्यात वयोवृद्ध साहित्यकार मुनिराज जिनविजय ने घोषणई की है कि पृथ्वीराज के कवि चंद वरदाई ने अपनी मूल रचना अपभ्रंश में की थी। इस गर्जन से स्तम्भित होकर चंद वरदाई नाक के अस्तित्व को अस्वीकार कर देने वाले इतिहासकार चुप हो गये, गुम-सुम, खोये हुए से, किसी नवीन तर्क की आशा में शिलालेखों और ताम्रपत्रों की जाँच में संलग्न । खैरियत ही हुई कि शिलालेख मिल गये, नहीं तो कौन जानता है पृथ्वीराज, जयचन्द्र और भीमदेव का व्यक्तित्व भी इन इतिहासकारों की प्रौढ़ लेखनियों ने ख़तरे में डाल दिया होता । ये कभी कभी भूल जाते हैं।