पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/१७

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कि इनके ऐतिहासिक सिद्ध करने वाले तत्वों द्वारा दिये गये प्रमाणों के अभाव में लिखित साहित्य से ही नहीं वरन् लौकिक साहित्य के अाधार तक से भी इतिहास का कलेवर भर जाता है । रासो अपने ऐतियों का मूल्यांकन करने के लिये फिर उनसे माँग कर रही है और यदि उन्होंने पक्षपात को न अपनाया तो कल्हण की ‘राज तरंगिणी' सदृश रास भी उन्हीं के द्वारा एक अपवाद मान लिया जायेगा।

मुनिराज जिनविजय की रासो की बात संबंधी चार अपभ्रंश छंदों की शोध ने जहाँ एक और डॉ० दशरथ शमी को ‘राजस्थान भारत में प्रकाशित अपने कई लेखों में यह दिखाने के लिये प्रेरित किया कि अपभ्रंश और प्राचीन राजस्थानी में अति अल्प अंतर है तथा मूल रूप में उत्तर-कालीन अपभ्रंश रत्रित ‘धृथ्वीराज-रासो' का विकृत रूए ना० प्र० स० वाला प्रकाशित रासो है वहाँ दूसरी योर मोतीलाल मेनारिया ने (राजस्थान का सिंगल साहित्य, सन् १९५२ ई०, पृ० ३-३८ में ) लिख...जिस प्राचीन प्रति में ये छप्पय मिले हैं वह सं० १५२८ की लिखी हुई है। इससे मालूम पड़ती है कि चंद नमक कोई कवि प्राचीन समय में, कम से कम सं० १५२८ से पहले हुआ अश्श्य है। परंतु वह चंद कब हुआ, कहाँ हुअा, वह किस जाति का था, उसने क्या लिखा इत्यादि बातों का कुछ पता नहीं है। अत: उस चंद का अधुना प्रचलित पृथ्वीराज रासो से सम्बन्ध जोड़ना अनुचित है। क्योंकि इसकी भाषा स्पष्ट बतलाती है कि वह विक्रम की १८ वीं शताब्दी से पूर्व की रचना नहीं है । परन्तु नृथ्वीराज-प्रबंध' में चंद का नाम मात्र ही नहीं है वरन उसकी‌ भट्ट जाति का भी उल्लेख है तथा पृथ्वीराज के शोरी से अंतिम युद्ध मैं उसके एक गुफा में बंद होने का भी वर्णन है । इसके अतिरिक्त पृथ्वीराज और जयचन्द्र' का बैर, पृथ्वीराज का अपने मंत्री कईंबास (कैमास) दाहिम को ब्राणु से मारना और बंदी होने पर सुलतान के ऊपर बाण चलाना भी वर्णित है। थे सभी बातें प्रकाशित रासो में वर्तमान हैं तथा इन प्रबंधों के तीन छप्पये भी उसमें विकृत रूप में पाये जाते हैं। ‘जयचंद्र प्रबंध' में ये दो छप्पय चंद के नहीं वरन् उसके पुत्र ‘जल्हुकइ’ (जल्ह कवि) के हैं जो रासो के अनुसार चंद का सबसे श्रेष्ठ पुत्र था और जिसे (पुस्तक अल्हन हस्त दै चलि' गज्जन नृप काज ) रासो की ( पुस्तक समर्पित करके कवि पृथ्वीराज के कार्य हेतु राज़नी गया था । इतने प्रमाणों की उपेक्षः कैसे की जा सकती है ? जहाँ तक भाषा का प्रश्न है यह किसी रासो प्रेमी से नहीं छिपा कि उसका एक बड़ा अंश एक‌ विशेष प्रकार की प्राचीन हिंदी भाषा में है।