पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/१६९

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बदल कर ये इष्ट की प्राप्ति में सफल होते हैं । गन्धर्व-गन्ध का आचरणं रूप-परिवर्तन सम्बन्धी कथा-सूत्र का स्मरण भी करवा देता है।

'पज्जून महुवा नाम प्रस्ताव ५३' में फिर शाह गोरी और चौहान के महुवा में होने वाले युद्ध के कारण को जिज्ञासा करती हुई शुकी देखी जाती है :

सुक्क सुकी सुक संभरिय । बालुक कुरंभ जुद्ध ।।
कोट महुव्वा साहदत । कहाँ आनि किम रुद्ध ।। s

इस 'प्रस्ताव' के अन्त में यश-कथा कहने वाले किसी मलैसिंह का उल्लेख मिलता है :

जीति महुव्वा लीय बर । ढिल्ली श्रानि सुपथ्थ ।।
जं जं कित्ति कला बढ़ी । मलैसिंह जस कथ्थ ।। ३०,

जिससे अनुमान होने लगता है कि यह प्रकरण या तो सर्वथा प्रक्षित हैं अथवा महुवा में हुए किसी चौहान-युद्ध का कहीं संकेत पाकर प्रक्षेपकर्ता ने इसे वर्तमान रूप प्रदान किया है।

इकसठवे 'नवज समयो' का प्रारम्भ भी शुक-सुख से संयोगिता के विरह में सन्तप्त पृथ्वीराज की आन्तरिक दशा के वर्णन से होता है :

सुक वरनन संजोग गुन । उर लग्गे छुटि बान ।।
बिन बिन सल्ले वार पर । न लहै बेद बिनान ।।१,

परन्तु इसके उपरान्त शुकी-शुक, श्रोता-वक्ता रूप में रासो के उपसंहार तक कहीं नहीं दिखाई पड़ते । इस 'प्रस्ताव' में जयचन्द्र के दरबार में नीली चोंच और रक्तवर्ण-शरीर वाले एक शक की केवल चर्चा मिलती है जो राजा के वाक्यों को दुहराता है :

नील चंच अरु रत तन । कर कर कटी भवेत ।।
जो जोइ अर्षे राज मुख । सोइ सोइ कीर कहंत ।। ५२५

वृहत् रासो के शुक शुकी सम्वाद की परीक्षा करके आचार्य द्विवेदी जी ने अपनी धारणा इस प्रकार व्यक्त की है-- 'यह बात मेरे मन में समाई हुई है कि चंद' का मूल ग्रन्थ शुक शुकी सम्वाद के रूप में लिखा गया था । और जितना अंश इस सम्वाद के रूप में है उतना ही वास्तविक है" । इसी विचार के अनुसार उन्होंने अपने 'संक्षिप्त पृथ्वीराज रासो' का सम्पादन भी किया है ।


१. हिंदी साहित्य का आदि काल, पृ० ६३ ;

२. साहित्य भवन लिमिटेड इलाहाबाद, सन् १९५२ ई० ;