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का स्वादात्मक रूप में प्रणयन पर्याप्त प्राचीन पद्धति है, फिर भी यह देख लेना समीचीन होगा कि क्या रासो की शेष तीन वाचनाओं में भी शुक शुकी मिलते हैं और इन वक्ता श्रोता का उल्लेख करने वाले छन्दों की भाषा कैसी है । इस पर भी विचार कर लेना चाहिए कि यदि शुक शुकी का प्रसंग हटा दिया जाय तो कथा में क्या परिवर्तन हो जायगा और साथ ही इस पर ध्यान देना आवश्यक है कि क्या शुक शुकी रासो की भिन्न कथाओं को जोड़ने वाली कड़ियों के रूप मात्र में तो नहीं लाये गये हैं । मेरा अनुमान है कि 'लीलावई' की भाँति मूल रासो भी पत्नी की जिज्ञासा-पूर्ति हेतु कवि द्वारा प्रणीत हुआ है । श्रोता-वक्ता के कई जोड़े जैसे महाभारत आदि में मिलते हैं उसी प्रकार रासो में भी वे वर्तमान हैं। उनकी उपस्थिति कहीं सम्भव है और कहीं विभिन्न कथाओं को श्रृंखलित करने के लिये कड़ियों के रूप में परवर्ती चातुर्य है ।

प्रशस्ति-पाठ आदि का कार्य कवियों ने शुक और सारिका से भी लिया है। बारहवीं शती के श्रीहर्ष ने लिखा है--'लोगों के द्वारा नल के उद्देश्य से सिखा पढ़ाकर वन में छोड़े गये चतुर तोते उनकी स्तुति करने लगे उसी तरह वहाँ छोड़ी गई सारिकाएँ भी उनके पराक्रम का गान करके अपने अमृत स्वर से उनकी स्तुति करने लगीं' :

तदर्थमध्याप्य जनेन तद्वने शुका विमुक्ताः पढवस्त मस्तुवन् ।
स्वरामृतेनोपजगुश्च सारिकास्तथैव तत्पौरुषगायनीकृताः ॥ १०३, नैषध;

परन्तु रहस्योद्घाटन करने वाले निर्दोष भेदिया के रूप में शुक और सारिका का प्रयोग भी भारत की एक प्राचीन कथा-योजना है। सातवीं इसवी शती के पूर्वार्द्ध के ( सम्राट ) हर्ष रचित विज्ञासमय प्रणय के रंगीन चित्र वाली नाटिका 'रत्नावली' की दासी रूपिणी सिंहत देश की राजकुमारी सागरिका राजा वत्सराज उदयन के प्रति विभोर होकर अपना गोपनीय प्रेम अपनी सहेली सुसङ्गता से प्रकट करती है-- 'दुर्लभ जन में अनुराग है, लज्जा बहुत भारी है और आत्मा परवश है; हे प्रिय सखी, विषम प्रेम है, मरण और शरण में एक भी श्रेष्ठ नहीं है':

दुल्लहपुरानो लज्जा गुरुई परव्वसौ अप्पा ।
पिअसहि विसमं प्पेम्मं मरणं सरणं गु वरमेकम् ।।११, अङ्क २;

महल की सारिका उपर्युक्त कथन सुनती थी, उसने इसे दोहराना प्रारम्भ कर दिया जिसे राजा ने भी सुन लिया और अपने विदूषक वसन्तक से कहा -- 'कठिनाई से निवारण करने योग्य कुसुम-शर की कथा को धारण किये हुए