पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/१७७

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कहा-- 'हे राजन्, तुम्हारा यह रूप दमयन्ती के बिना इस प्रकार निरर्थक है जैसे बाँझ वृक्ष का फल-हीन पुष्प । यह समृद्ध पृथ्वी भी वृथा है तथा कोकिलो के कूजने से शोभायमान विलास वाटिका भी व्यर्थ है':

तत्र रूपमिदं तथा विना विफलं पुष्पमिवावकेशिनः ।
इयमृध्दधना वृथावनी स्ववनी संप्रवदपिकापि का ॥ ४३,

सर्ग २

परन्तु देवता भी उसको प्राप्त करना चाहते हैं अत: उसके साथ तुम्हारा सम्बन्ध उसी प्रकार कठिन है जिस प्रकार वर्षा काल में मेव से ढँके हुए चन्द्रमा की दीप्ति के साथ समुद्रका', इसलिये मैं दमयन्ती से तुम्हारी प्रशंसा इस प्रकार करूँगा कि उसके हृदय में धारण किये गये तुमको इन्द्र भी न हटा सकें। फिर विदर्भ जाकर वन विहार करती हुई दमयन्ती को उसकी सखियों से युक्तिपूर्वक पृथक करके एकान्त में अकेले लाकर हंस ने उससे शुक-सदृश मानव वाणी में नल का रूप-गुण-वर्णन करके 'योगयोग्यासि नलेतरेण'(अर्थात् नल को छोड़कर तुम और किसी के साथ संयोग के योग्य नहीं हो ) कहा तथा लज्जित-हर्षित दमयन्ती से स्वीकार करा लिया कि मेरा चित केवल नल को चाहता है और कुछ नहीं --

इतीरिता पत्ररथेन तेन होणा च हृष्टा च बभाण भैमी । चेतो नलं कामयते मदीयं नाऽन्यत्र कुत्रापि च साभिलाषम् ॥ ६७,

सर्ग ३;

तथा वा तो मैं आज उन्हें प्राप्त करूँगी अथवा प्राण जावेंगे, दोनों तुम्हारे हाथ में हैं; इनमें से एक बात रह जायगी । इस प्रकार हंस ने जब दमयन्ती का हृदय टटोल कर उसका नल के प्रति पूर्ण राग का आभास पा


१. श्लोक ४६, सर्ग २;

२. श्लोक ४७, वही;

३. इलोक १-११, सर्ग ३;

४. श्लोक १२- ४८८ वहीं;

५. बेलातिगस्त्रैणगुणाब्धिवेणिर्न योगयोग्यासि नलेतरेण । सन्दर्म्यते दर्भगुणेन मल्लीमाला न मृद्वी भृशकर्कशेन ॥ ४६, वही;

६. श्रुतश्च दृष्टश्च हरित्सु मोहाद्ध्यातश्व नीरन्नितबुद्धिधारम् । मद्य तत्प्राप्ति सुरव्यया वा हस्ते तवास्ते द्वयमेकशेषः ॥ ८२, वही