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लिया' तब उसने अपनी 'वञ्च पुटमौनमुद्रा' ढीली की और नल का उसके प्रति श्रतिशय प्रेम, रूप-विमुग्धता, परवशता, विरह कातरता आदि का उल्लेख किया। फिर उसकी सखियों या पहुँचने पर हंस उससे विदो लेकर नल की राजवानी को प्रस्थित हो गया । विदर्भ पहुँचने पर राजा नल ने हंस से दमयन्ती के वचन 'कैसे, कैसे' इस प्रकार आदर-पूर्वक पूछकर बार-बार दुहरवाये और फिर अत्यन्त हर्ष रूपी मधु से मत्त होकर वे वचन स्वयं भी अनेक बार कहे :

कथितमपि नरेन्द्रः शंसयामात हंसं

किमिति किनति पृच्छन् भाषितं स प्रियायाः ।

अधिगतमथ सान्द्रानन्दमाध्वीकमत्तः

स्वयमपि शतकृत्वस्तत्तथान्वाचचक्षे ॥ १३५, सर्ग ३

'पृथ्वीराज रासो' के ‘शशिवृता वर्णनं नाम प्रस्ताव २५' का हंस दूत अपने कार्य में ‘नैषध" के प्रणय-दूत से बहुत सादृश्यता रखता है। देवगिर का नट दिल्ली दरबार में आया (छं० १५-१७ ) और पृथ्वीराज द्वारा पूछने पर कि वहाँ को कुमारी शशिष्वृता का विवाह किसके साथ निश्चित हुआ है (छं० १८ ), उसने बताया कि उज्जैन के कमधज्ज राजा के यहाँ सगाई ठहरी है परन्तु राजकुमारी को उक्त वर प्रिय नहीं है (छं० १६-२३ ) । फिर उसके द्वारा शशिवृता का मेनका सदृश रूप सुनकर (छं० २४, २६-२७), पृथ्वीराज उस पर अनुरक्त हो गये और नट से उसकी प्राप्ति का उपाय पूछने लगे (छं० २८) । नट ने यह कहकर कि हे राजेन्द्र, मैं कुछ उठा न रखूँगा, उनसे विदा ली (छं० २९ ) । राजा ने शिव से अपना मनोरथ सिद्ध होने का वरदान पाया तथा वर्षा और शरद ऋतुयें शशिवृता के विरह की काम-पीड़ा में बिताई और देवगिरि जाने का निश्चय किया (छं० ३२-४५)।

उधर जयचन्द्र के भ्रातृज वीरचन्द्र के साथ शशिवृता की सगाईं का समा चार पाकर एक गन्धर्व देवगिरि गया (छं० ६९ ) और वन में जहाँ वह अपनी समवयस्काओं के साथ क्रीड़ा कर रही थी (छं० ७०), वह हेम-हंस के रूप में एक स्थान पर विश्राम करने लगा; राजकुमारी ने अत्यन्त आश्चर्य से


१. श्लोक ८२-६८, वही;

२. श्लोक ६६, वही ;

३. श्लोक १००-२८, वही ;

४. श्लोक १२६, वही ;