पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/१७९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( १६९ )

उसे देखा और बलपूर्वक पकड़ कर उससे पूछा कि तुम कौन हो, तुम्हारा स्थान कहाँ है और इस रूप में किस माया से आये हो ? हंस ने उत्तर दिया कि मैं मतिप्रधान नामक गन्धर्व हूँ, सुरराज के कार्य हेतु आया हूँ और हे बाले, तीनों लोकों में जा सकने की मुझ में शक्ति हैं :

हम हंस तन धरिय । विपन मध्य विश्राम लिय ।।
दिपि तास शशिवृत्त । प्रतिहि श्रन्चरिज्ज्ञ मानि जिय ।।
वल कर गहि सुतत्व । हृत्व लै करि तिहि पुच्छिय ।।
कवन देव तुम थान । कवन माया तन श्रच्छिय ।।
उच्चर हंस सति सम । मति प्रधान गन्धर्व हम ।।
सुरराज काज आए करन । तीन लोक हम बाल गम ।। ७१,

फिर उसने वीरचन्द्र की ग्रायु केवल एक वर्ष बतला कर (छं० ७३ ), इन्द्र द्वारा करुणपूर्वक अपने भेजे जाने की बात कहो :

तेम रहै बर बरष इक्क महि । हयगय अनत कि हैं समतहि ।।
तिहि चार करि तुमहि पै आयौ । करि करुना यह इन्द्र पठायौ ।। ७४

यह सुनकर स्वाभाविक ही था कि शशिवृता का चित्त उधर से विरत हो गया, और उसने उससे अपने अनुरूप वर पूछा :

तब उच्चारय बाल सम तेहं । तुम माता सम पिता सनेहं ।।
मुझ सहाय श्रवरि को करिहौ । पानि ग्रहन तुम चित अनुहरिहौ ।। ७५

फिर क्या था, चतुर हंस दूत तो इस ताक में था ही, अवसर मिलते ही शूरमाओं के अधिपति दिल्लीश्वर पृथ्वीराज का गुणगान कर चला (छ० ७६-७८) । उसे सुनकर शशिवृता ने कहा कि तुम जाकर उन्हें लिवा लाओ, मैं छै मास तक चौहान की प्रतीक्षा करूँगी और इस अवधि तक उनके न आने पर अपना शरीर त्याग दूँगी :

तहां तुम पिता कृपा करि जाउ । दिल्ली वै अनुराग उपाउ ।।
मांस ट हों वृत्तह मंडों । थ्थुना श्रावै तो तन छडौं ।। ७९

'श्रीमद्भागवत्' की रुक्मिणी भी तो कृष्ण के प्रति अपने सन्देश में कहलाती हैं -- '(यदि श्राप न आये तो )' मैं व्रत द्वारा अपने शरीर को सुखा कर प्राण छोड़ दूँगी; ....':

जामसूत्रत कुशाञ्छतजन्मभिः स्यात् ।। १०-५३-४३ ;

इस प्रकार शशिवता को पृथ्वीराज के अनुराग में पागकर, हंस उसके पास अपनी सुन्दरी को छोड़कर उत्तर की ओर उड़ चला और योगिनिपुर जा पहुँचा, उसके सुवर्णमय शरीर पर अनेक नगों की शोभा हो रही थीं :