पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/१८०

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तब उड़ चल्यो देह दिसि उत्तरि । दिग ससिबत रपि निज सुंदरि ॥ जुग्गिनिपुर श्राव दुज राजं । सोवन देह नगं नग साज ।।८,

वन में शिकार खेलते हुए किशोर पृथ्वीराज ने आश्चर्य के साथ इस स्वर्ण हंस को देखा और उसे पकड़ लिया तब उसने राजा से सारी कथा कह दी :

वय किसोर प्रथिराज । रम्य हा रम्य प्रकारं ॥
सेत पण विय चंद । कला उद्दित तन मारं ॥
विपन मध्य चलान । हंस दिष्यों आप अयि ॥
चरण भग्ग दुति होत । हेम पछ्छी वियलप्रिय ।।
श्राचिज्ज देषि प्रथिराज बर । धाइ नूपति वर कर गहिय ॥
श्रापुब्व दुज्ज गति दूत कथ । रहसि राज सों सब कहिय ८१ तथा ८२,

सायंकाल यादवराज के इस हंस दूत ने राजा को एक पत्र दिया ( छं० ५३ ) तथा एकान्त की वांछना करके चुप हो गया ( छं० ८४ ) । ( अभिलषित परिस्थिति होने पर ) उसने चौहान से कहा कि शशिवृता का वर्णन सुनने के लिये शारदा (सरस्वती) भी ललचाती हैं :

इह अष्षी चहुआन सों । न तो सार कहि आइ ।
सुनिवेकों ससिवृत्त गुन । सारदऊ ललचाई ॥ ८८,

और सूर्य तथा चन्द्र के उदय और ग्रस्त काल के मध्य में वह इस प्रकार शोभित होती है मानो शृङ्गार का सुमेरु हो :

राका अरू सूरज विच । उदै अस्त दुहु बेर ॥
बर शशिवृत्ता सोभई । मनों शृङ्गार सुमेर ॥ ८९

फिर हंस ने राजकुमारी की बाल्यावस्था व्यतीत होकर किशोरावस्था के आगमन पर शिशिर और वसंत का सावयत्र आरोप करके उस अज्ञात- यौवना का रूप चित्र खींचा :

सिर अंत आवन बसंत । बालह सैसब गम ॥
अनि पंप कोकिल सुकंठ । सजि गुंड मिलत भ्रम ।।
मुर मारुत मुरि चले । मुरे मुरि बैस प्रमानं ।।
तुछ को परसिस फुट्टि । यानि किस्सोर रँगानं ।।
लीनी न अमि नक स्थांम नन । मधुप मधुर धुनि धुनि करिय ।।
जानी न वयन बावन बसत अग्याता जोवन श्ररिय ।। ९५,
पत्त पुरातन ज्यों सैसव भरिग । पत्त अंकुरिय उड़ तुछ ।।
ज्यो सैसव उत्तरिय । चढ़िय सैसब किसोर कुछ ॥