पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/१८३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( १७३ )

जब वित्रिन चंद्रिका । कहै गुन नित चहुवानं ।।
जैस पराक्रम राज । तेइ बरने दिन मानं ।।
राजकु र जब सुने । तबै उभ्भरै रोम तन ।।
फिरि पुच्छे ससिवृत्त । सद्दि एकंत मत्त गुन ।।
जे जे सु पराक्रम राज किय । सोइ कहै वित्रिन समर्थ ।।
श्रोतान राग लग्यो उर । तो वृत लिनौ सुनी सुकथ ।। १७८ ;

युवावस्था में पदार्पण करने पर उसे काम पीड़ा सताने लगी (छं० १७६ ), आप को प्राप्त करने की कामना से वह मनसा, वाचा, कर्मणा से शिव-शिवा ( गौरी-शंकर ) की कठोर उपासना में रत हुई (छं० १८१-८३), जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने स्वप्न में उसे मनोवाञ्छित वर प्रदान कर दिया (छं० १८४ ) तथा रुक्मिणी की भाँति उसका हरण करने का सन्देश देकर मुझे आप के पास भेजा :

हुअ प्रसंन सिव सिवा । बोलि हूँ पठय तुझ प्रति ।।
इह बरनी तुम जोग । चंद जोसना बांन वृत ।।
क्यों रुकमिनि हरि देव । प्रीति प्रति बढ़ें प्रेम भर ।।
इह गुन हंस सरूप । नाम दुजराज भनिय चर ।। १८६ ;

जयानक ने भी अपने 'पृथ्वीराजविजयमहाकाव्यम्' में लिखा है कि दमघोष के पुत्र शिशुपाल को त्यागकर रुक्मिणी ने कृष्ण का वरण किया था— व बलादाङ्गिरसाङ्गनापि

यदेनमेषोपि कथं कलङ्कः ।

विहाय देवी दमघोषत्नु

न रुक्मिणी किं विधुमातिलिङ्ग || षण्ठसर्गः ;

राजा ने हंस से फिर पूछा कि यदि राजकुमारी की यह मनोदशा थी तो उसके पिता ने पुरोहित भेजकर विवाह क्यों रचाया (छं० १८७ ) ? हंस ने उत्तर दिया कि यादव राज को जयचन्द्र से हो सम्बन्ध प्रिय लगा और उन्होंने उनके पास पुरोहित के हाथ श्रीफल तथा वस्त्राभूषणों सहित लग्न भेज दी (छं० १८८-८९ ); जयचन्द्र ने पुरोहित से यह जानकर कि विवाह का मूहूर्त पास ही है अपनी चतुरंगिणी सेना सजाकर, अगणित द्रव्य सहित, उत्साहपूर्वक देवगिरि के लिये प्रस्थान कर दिया है (छं० १९०-६२ ), उन की दस लाख सेना विवाहोत्सव के उत्साह में स्थान-स्थान पर ठहरती आगे बढ़ रही है (छं० १९३-६४ ); हे दिल्लीश्वर ! कलियुग में कीर्ति अमर करने के लिये आप भी चढ़ चलिये देवगिरि की सुगंधा आप ही के योग्य है,