पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/१८४

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जिसके व्रत के कारण शिव ने मुझे आप के पास भेजा है, कुमारी ने आप का ही वरण करने की दृढ़ प्रतिज्ञा कर रखी है, अस्तु हे राजन् विलम्ब न करिये, एक मास की अवधि है, विवाह हेतु अपने मन को अनुरक्त कर लीजिये :

कह हंस राज राजन सु बत्त । चढ़ि चतौ कलू रब्पन सु कत्थ ॥
तुम योग नारि बरनी कुमारि । हू पठय ईस तु वृत्त नारि ॥ १९५
उन लिय वृत्त तु दृढ नेम । नन करि विरम्म राजन सु एम ॥
इक मास अवधि दुज कहै बत्त । व्याहन सु काज मन करौ रन्त ॥१९६,

यह सुनकर राजा ने शशिवृता से मिलने के लिये संकेत स्थल पूछा (छं० १९९ ) ।

ऐसी ही स्थिति में रुक्मिणी ने संकेत किया था-- 'हमारे यहाँ विवाह के पहले दिन कुल देवी की यात्रा हुआ करती है । उसमें नववधू को नगर के बाहर श्री पार्वती जी के मन्दिर में जाना पड़ता है' :

पूर्वेद्युरस्ति महती कुलदेवियात्रा

यस्यां बहिर्नववधू गिरिजामुपेयात् ॥ १०-५३-४२,

श्रीमद्भागवत् ;

तब उसी परिपाटी पर विवाह की प्रेरणा और निमंत्रण देने वाला हंस पृथ्वी- राज से माघ शुक्ल त्रयोदशी को हरसिद्धि के स्थान ( अर्थात् पार्वती या देवी के मन्दिर ) में मिलन की स्पष्ट बात क्यों न कहता :

कह यह दुज संकेतं । हो राज्यंद धीर ढिल्लेसं ॥
तेरसि उज्जल माघे । ब्याहन वरनीय थान हर सिद्धिं ॥ २००
फिर पृथ्वीराज द्वारा अपने आने का बच्चन दे देने पर (छं० २०१ ),

वह कृत प्रेम दूत उधर वापस उड़ गया :

इह कहि हंस जुड़ गयौ । लग्यौ राज श्रोतान ।।
छिन न हंस धीरज धरत । सुख जीवन दुख प्रान ।। २०३,

और इधर पृथ्वीराज 'ज्यों रुकमनि कन्हर बरिय" हेतु देवगिरि जाने का प्रायोजन करने लगे ।

'नैषध' के नल और दमयन्ती यदि एक दूसरे के देशों से आने वाले लोगों के द्वारा परस्पर गुण सुनकर अनुरक्त होते हैं तो 'रासो' के पृथ्वीराज और शशिवृता क्रमश: नट और शिक्षिका द्वारा पारस्परिक राग के लिये प्रेरित किये जाते हैं । 'नैषध' का हंस दूत यदि दमयन्ती को एकान्त में ले जाकर


१. छं० ३४, पद्मावती समय २०, 'पृथ्वीराज रासो';