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बहुत माता है तो एकान्त का अभिलाषी 'रासो' का हंस दूत भी पृथ्वीराज के साथ पर्यात माथापच्ची करता है । दशायें पृथक हैं । वहाँ स्वयम्बर होना है और वरमाला डालने का पूर्ण उत्तरदायित्व दमयन्ती का है, यहाँ हरण होना है जिसमें पराक्रम रूप में पृथ्वीराज को मूल्य चुकाना है । नारी को स्वयम्बर में परीक्षा देनी है परन्तु पुरुष को समर में । परिस्थितियाँ भिन्न हैं । 'नैषध' और 'रासो' के विवाहों में प्रधान कार्य-पात्र पृथक हैं, एक में नारी है तो दूसरे में नर, अस्तु अनुरूप दूत होकर भी उनके तत्व में विभेद है । प्रयोजन एक है परन्तु वातावरण भिन्न है । और इसी का ज्ञान चंद के कवि-कर्म की सफलता का रहस्य है।

प्रस्तुत 'शिवृता विवाह नाम प्रस्ताव' में कवि ने प्रेम-वाहक हंस दूत, रूप-परिवर्तन, अप्सरा और कन्या हरण इन चार प्राचीन कथा-सूत्रों का कुशलता से उपयोग किया है।

रासो में पद्मावती, शशिवृता और संयोगिता के विवाहों का ढंग लगभग समान है परन्तु 'श्रीमद्भागवत्' की रुक्मिणी' की भाँति चंद उन्हें, 'राक्षस विवाह' नहीं कहते वरन् 'गन्धर्व विवाह' कहकर शूर वीरों को बढ़ावा देते हैं । अपने इन गन्धर्व विवाहों का वर्णन उन्होंने बहुत जम कर किया है। तथा इनमें शृङ्गार और वीर का घटनावश अनुषन योग होने के कारण विप्रलम्भ, उत्साह, क्रोध, भय और सम्भोग आदि भावों के मनोमुग्धकारी प्रसंगों के चित्रण में उन्हें आशातीत सफलता मिली है । यहीं देखे जाते हैं कवि के लोक-प्रसिद्ध, स्वाभाविक, ललित और हृदयग्राही प्रस्तुत, उसके वणों के सुघड़ संयुजन द्वारा निर्मित विस्फोटक शब्दों की अर्थ-मूर्तियाँ तथा वह ध्वनि जो हमें प्रत्यक्ष से ऊँचा उठाकर कल्पना के असीम सरस आलोक-लोक में विचरण कराती है ।

श्रीहर्ष ने 'नैषध' में नल के स्वरूप की महिमा का वर्णन करते हुए लिखा है-- 'किस स्त्री ने रात को स्वप्न में उन्हें नहीं देखा ? नाम की भ्रान्ति


१. निर्मथ्य वैद्यमगधेन्द्रबलं असश्य

मां राक्षसेन विधिनो वीर्य शुल्काम् ।।१०-५३-४१,

[ अर्थात् मगध की सेना को बलपूर्वक नष्ट करते हुए, केवल वीर्य रूप मूल्य देकर मेरे साथ राक्षस-विधि के अनुसार विवाह कीजिये । ]

२. सार प्रहारति मेवो देवो देवत्त जुद्धयौ बलयं ॥ .

गंभवी प्रति व्याहं । सा व्याहं सूर कत्तयामं ॥ छं० २६८, स० २५;