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मानव के मिलन और वियोग के सुप्त भावों को जगाने वाले बरही के नृत्य, क्रौज्च की क्रीड़ा, चातक की रट, कोकिल की कूज, भ्रमर के पुष्पासव-पान आदि भी प्रकृति-पट पर ऋतु-परिवर्तन के साथ सुलभ होते ही रहे होंगे। अपने मन के सुख और दुःख का स्पन्दन जड़ प्रकृति में आरोपित करके मानव ने अनुभूति की कि उसके आनन्द में चाँद हँसता है, नेत्र उत्कर्ष देते हैं और विकसित पुष्प हास्य से झूम उठते हैं तथा उसके निराशा और अवसाद के क्षणों में, प्रकृति के ये विभिन्न अवयव उसके आत्मीय प्रिय सहचर की भाँति तादात्म्य भाव से प्रतिक्रिया स्वरूप तदनुसार आचरण करने लगते हैं। इस प्रकार प्रकृति के वे ही अङ्ग जहाँ दुखी विरही के लिये शूल हुए, सुखी संयोगी के लिये फूल बन गये। कवि ने अपने पात्र-पात्राओं की परिस्थिति के अनुसार साहित्य के पैतृक उत्तराधिकार में प्राप्त सम्वेदनशील प्रकृति के जड़ जगत को ही अपनी प्रतिभा के अनुसार नहीं हँसाया-स्लाया वरन् उसके आश्रित पशु-पक्षी भी अनुरूप व्यवहार कर उठे।

प्रसवण गिरि की गुफा में लक्ष्मण के साथ निवास करते हुए वाल्मीकि के राम ने वर्षा-ऋतु[१] का वर्णन करते हुए कहा—"यह वर्षा अनेक गुणों से सम्पन्न है। इस समय सुग्रीव अपने शत्रु को परास्त करके महान राज्य पर अभिषिक्त हो स्त्री के साथ रहकर सुख भोग रहे हैं। किन्तु मेरी स्त्री का अपहरण हो गया है, इसलिये मेरा शोक बढ़ा हुआ है। इधर, वर्षा के दिनों को बिताना मेरे लिये अत्यन्त कठिन हो रहा है।[२] 'ब्रह्माण्डपुराण' (उत्तर-


  1. १. घनोपगूढं गगनं न तारा न भास्करो दर्शनसभ्युपैति।
    नवैर्जलौचैर्वरणी वितृप्ता तमोविलिप्ता न दिशः प्रकाशाः॥४७
    महान्ति कूटानि महीधराणां वाराविधौतान्यधिकं विभान्ति।
    महाप्रमाणैर्विपुलैः प्रयातै मुक्राकलापैरिव लम्बमानैः॥४८
    शैलोपल प्रस्वलमानवेगा: शैलोत्तमानां विपुलाः प्रपाताः।
    गुहासु संनादितवर्हिणासु हारा विकीर्यन्त इवाभान्ति॥४९
    शीघ्रं प्रवेग विपुला: प्रपाताः निश्रौंतशृङ्गोपतलागिरीगाम।
    मुक्ताकलापप्रतिमाः पतन्तो महागुहोत्सङ्गतलैर्धियन्ते॥५०
    सुरतामर्दाविच्छिन्ना: स्वर्गस्वीहार मौक्तिका:।
    पतन्ति चातुला दिक्षु तोयधाराः समन्ततः॥५१,

    सर्ग २८ किष्किन्धा°, रामायण;

  2. २. इमा: स्फीतगुणा वर्षाः सुग्रीवः सुखमश्नुते।
    विजितारिः सदारश्च राज्ये महति च स्थितः॥५७