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खण्ड) में वे कहते हैं—'चन्द्रमुखी सीता के बिना मुझे चन्द्रमा भी सूर्य के समान (तापमान) प्रतीत होता है। हे चन्द्र, तुम अपनी किरणों से पहले जानकी को स्पर्श करो; (उनका स्पर्श करने से वे शीतल हो जायेंगी) फिर उन शीतल किरणों से मुझे स्पर्श करना'[१]। कृष्ण की रानियाँ कहती हैं—'ए टिटिहरी! इस रात्रि के समय जब कि गुप्त बोध भगवान् कृष्ण सोये हुए हैं तू क्यों नहीं सो जाती! क्या तुझे नींद नहीं रही जो इस प्रकार विलाप कर रही है? हे सखि हमारे समान क्या तेरा हृदय कमलनयन के लीला-हास्वमय कटाक्ष-बाण से अत्यन्त बिंध गया है? अरी चकवी! तूने रात्रि के समय अपने नेत्र क्यों मूद लिये हैं? क्या अपने पति को न देख पाने के कारण ही तू ऐसे कम स्वर से पुकार रही हैं? क्या तू भी हमारे समान ही अच्युत के दास्य भाव को प्राप्त होकर उनके चरण कमलों पर चढ़ाई हुई पुष्पमाला को अपने जूरे में धारण करना चाहती है'[२], इसी प्रकार उन्होंने समुद्र, चन्द्र, मलयमास्त, मेघ, कोकिल, भूधर और नदी को भी सम्बोधन किया है।

कालिदास के यक्ष ने अपना विरह प्रेषित करने के लिये भेघ का पल्ला पकड़ा तो घोयी की कुवलयवती ने पवन का। ऋतु-वर्णन की साहित्य में


अहं तु हृतदारश्च राज्याच्च महतश्च्युतः।
नदीकूलमिव ल्किन्नवसीदामि लक्ष्मण॥५८
शोकश्च मम विस्तीर्णो वर्षाश्च भृशदुर्गमा:।
रावणश्च महाज्छत्रुपारः प्रतिभाति में॥५९,

सर्ग २८, किष्किन्धा°, रामायण;

  1. १. चन्द्रोऽपि भानुवद्भाति मम चन्द्राननां विना॥६
    चन्द्र त्वं जानकीं स्पृष्ट्वा करैर्मा स्पृश शीतलैः॥७, सर्ग ५,

    किष्किन्धा°;

  2. २. कुररि विलपसि त्वं वीतनिद्रा न शेषे
    स्वपिति जगति राज्यमीश्वरो गुप्र बोधः।
    वयसिव सखि कच्चिसणढनिर्भिन्नचेटा
    नलिननयन हासोदारलीलेक्षितेन॥
    नेत्रे निमीलयसि नक्तमदृष्टवन्धु-
    स्स्वं रोरवीषि करुणं वत चक्रवाकि।
    दास्यं गता वयमिवाच्युतपादजुष्टां
    किं वा स्रजं स्पृहयसे कवरेण वोटुम्॥

    १०, ९०, १५-१६;