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सजीवता से अनुप्राणित होकर संस्कृत के आचार्यों ने महाकाव्य के कई लक्षणों में उसके वर्णन मात्र की ही नहीं वरन् नाम ले लेकर उसके विभिन्न अङ्गों की भी गणना की है। यही कारण है संस्कृत के महाकाव्यों में अनिवार्य रूप से ऋतु-वर्णन की परिपाटी का।

स्वयम्भूदेव के वर्षा-वर्णन का एक अंश इस प्रकार है—'सीता और लक्ष्मण सहित जब दाशरथि वृक्ष के नीचे बैठे तो गगनाङ्गण में मेव-जाल उसी प्रकार उमड़ आया जैसे सुकवि का काव्य प्रसारित होता है और जैसे ज्ञानी की बुद्धि, पापी का पाप, धर्मी का धर्म, मृगाङ्क की ज्योत्स्ना, जगत-स्वामी की कीर्ति, धनहीन की चिन्ता, कुलीन का यश, निर्धन का क्लेश, सूर्य का शब्द, आकाश में सूर्य की राशि और वन में दावाग्नि प्रसरित होते हैं वैसे ही अम्बर में मेघमाला फैल गई'[१]। अपभ्रंश कवि की इस प्रकार की योजना से तुलसी ने अपने 'रामचरितमानस' के किष्किन्धाकाण्ड में प्राकृतिक विधान करते हुए उपदेशात्मक अप्रकृतों के नियोजन की प्रेरणा पाईं हो तो कोई आश्चर्य नहीं।

प्रकृति के अनुरंजनकारी रूप, प्रत्येक ऋतु तथा उसके कारण लता, गुल्म, पुष्प, धान्य की उपज का सूक्ष्म और विस्तृत ज्ञान रखने वाले पुष्पदन्त का पावस-काल में प्रसाधित भूमि का वर्णन, कामनाओं को पूर्ण करने वाला और अमित सुख का स्वाभाविक दाता है।[२]


  1. १. सीय स-लक्खण दासरहि, तरुवर मूलेॅ परिट्ठि जावेॅ हिँ।
    पसरह सुकइहि कव्वु जिह, मेह-जालु गयरांगणेॅ तावेहिँ॥
    पसरइ जेम बुद्धि बहु जाणहोॅ। पसरइ जेम पाउ पाविट्ठहोॅ॥
    पसरइ जेम धम्मू धम्मिट्ठहोॅ। पसरइ जेम जोणह मयवाहहोॅ॥
    पसरइ जेम कित्ति जगणाहहोॅ। पसरइ जेॅम चिंता धरणहीणहोॅ॥
    पसरइ जेम कित्ति सुकुलीणहोॅ। पसरइ जेॅम किलेसु णिहीणहु॥
    पसरइ जेम सद्दु सुर-तूरहोॅ। पसरइ जेॅम रासि णहेॅ सूरहोॅ॥
    पसरइ जेम दवग्गि वणंतरे। पसरिउ मेह-जालु तह अंबरे॥२८१,

    पउमचरिउ;

  2. २. मुग्ग-कुलत्थु-कंगु-जब-कलव-तिलेसी-वीहि-मासया॥
    फलभर-णविय-कणिस-कण-लंपड-णिवडिय-सुय-सहासया॥
    ववगय-भोय-भूमि-भव-भूरुह-सिरि-णरवइ-रमा सही॥
    जाया विविध-धण्ण-दुम-बेल्ली-गुम्म-पसाहणा मही॥ पृ° २९-

    ३०, आदिपुराण;