पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/१९८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(१८८)


सुरम्य वन में गुंजार पूर्वक विचरण करते हुए, मालती-पुष्पों के वक्ष देश का चुम्बन करने वाले भ्रमर के अति मुक्त रति-विलास को देखकर धनपाल ने श्रेष्ठ वसन्त का स्मरण किया जाना अनिवार्य बतलाया है।[१]

अपभ्रंश काव्य में कहीं विरहिणी चातक को सम्बोधन करके कहती है—'तुम हताश होकर कितना रोते रहोगे, तुम्हारी जल से और मेरी प्रियतम से, दोनों के मिलन की आशा पूरी न होगी'[२]। कहीं परदेशी प्रियतम मेघ-गर्जन सुनकर अपनी प्रेयसी की याद से आन्दोलित होकर कह बैठता है—'यदि वह प्रेम-पूर्ण थी तो मर चुकी है और यदि जीवित है तो प्रेम-शून्य है, दोनों प्रकार से मैंने धन्या को खो दिया, अरे दुष्ट बादल! तुम क्यों गरजते हो'[३]। कहीं अति शारीरिक कृशता वश विरहिणी को वलय गिरने के भय से अपनी भुजायें उठाकर चलते देख कवि अनुमान करता है कि वह प्रियतम के विरह-सागर में थाह ढूँढ़ रही है।[४] कहीं प्रियतम के श्रागमन का शकुन लेते हुए कौए को उड़ाने में क्षीण काया प्रोषितपतिका की आधी चूड़ियाँ पृथ्वी पर गिरकर टूट जाती हैं और शेष उसके उसी समय आगतपतिका हो जाने के कारण हर्षोत्फुल्ल शरीर के स्थूल हो जाने पर तड़ककर टूट जाती हैं।[५] कहीं हम विरही को अनुभव करते हुए पाते हैं कि सन्ध्या-काल भी वियोगियों को सुखद नहीं, क्योंकि उस समय मृगाङ्क वैसा ही तपता है जैसा सूर्य दिन में।[६] और कहीं एक आँख में सावन, दूसरी में भादौं नये पत्तों


  1. १. जहिं मालइकुसुमामोयरउ, चुंवंतु भमइ वणि महुअरउ।
    अइमुत्तए' वि जहिं रह करइ, सो बालवसंतु को न सरइ॥ १०,

    सन्धि ८, भविसवत्तकहा;

  2. २. वप्पीहा पिउ पिउ भणबि कित्तिउ रुअहिं हयास।
    तुह जलि महु पुणु वल्लहइ बिहुँ विन पुरिअ आस॥ ३८३-१,

    हेसशब्दानुशासनम्;

  3. ३. जइ ससणेही तो मुइअ अह जीवइ निन्नेह।
    बिहिं वि पयारेॅहिं गइअ धण किं गज्जब खल मेह॥ ३६७-४, वही;

  4. ४. वलयावलि निवडण भएणॅ धण उद्रब्भुअ जाइ।
    वल्लह-विरह-महादहहो थाह गवेसइ नाइ॥ ४४४-२, वही;

  5. ५. वायसु उड्डावन्तिअए पिउ दिट्ठउ सहस त्ति।
    श्रद्धा वलया महिहि गय अद्धा फुट्ट तड त्ति॥ ३५२-१, वही;

  6. ६. मइँ जाणिउँ पिअ विरहिअहं कवि घर होइ विआलि।
    णवर मिअक्ङु वि तिह तवइ जिह दिणयर खय-गालि॥ ३७७, १, वही;