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के बिछौने में वसन्त, कपोलों पर शरद्, अङ्गों में ग्रीष्म, कटे हुए तिल-वन में अगहन रूप में हेमन्त तथा मुख-कमल पर शिशिर वाली विरह-जड़िता मुग्धा दृष्टिगोचर होती हैं।[१]

अब्दुलरहमान कृत 'सन्देशरासक' की प्रोषितपतिका एक पथिक द्वारा अपने प्रियतम को विरह सन्देश भेजते हुए षट् ऋतुओं में अपनी दशा का मार्मिक विवेचन करती है। उदाहरणस्वरूप हेमन्त में उसकी स्थिति देखिये—"सुगन्धि के लिये अगरु जलाया जाने लगा, शरीर पर केशर मली जाने लगी, दृढ़ आलिङ्गन सुखकर हुआ, दिन क्रमशः छोटे होने लगे परन्तु मेरा ध्यान प्रियतम की ओर लगा रहा। उस समय मैंने कहा, मैं दीर्घ श्वासों से लम्बी रातें बिता रही हूँ। तुम्हारी स्मृति मुझे सोने नहीं देती। तुम्हारा स्पर्श न पाने से ठंढक के कारण मेरे अङ्ग ठिठुर गये हैं। यदि इस शीत में भी तुम न आए तो हे मूर्ख! हे दुष्ट! हे पापी! क्या तुम मेरी मृत्यु का समाचार पाकर ही आओगे"[२]

ऋतु-वर्णन विषयक काव्य-परम्परा का पालन करते हुए चंद ने भी रासो में ऋतुओं के अनुपम चित्र अवान्तर रूप से कहीं पुरुष और कहीं स्त्री-विरह का माध्यम बनाकर खींचे हैं, जो उसकी मौलिक प्रतिभा के द्योतक


  1. १. एकहिँ अक्खिहिं सावणु अन्नहिं मद्दवउ।
    माहउ महियल-सत्थरि गराड-त्थलेँ सरउ।
    अङ्गिहिं गिम्ह सुहच्छी-तिल-वाणि मग्गसिरु।
    तहेॅ मुद्धहेॅ मुह-पक्ङइ आवासिउ सिसिरु॥ ३५७-२, वही;

  2. २. धूइज्जइ तह अगरु घुसिणु तणि लाइयइ,
    गाढउ निवडालिंगणु अंगि सुहाइयइ।
    अन्नह दिवसह सन्निहि अंगुलमत्त हुय,
    महु इक्कह परि पहिय णिवेहिय बम्हजुय॥ १८६,....
    दीहउससिहि दीहरयणि मह गइय णिरक्खर,
    आइ ण णिद्दय णिंद तुज्झ सुयरंतिय तक्खर।
    अंगिहिं तुह अलहंत धिठ्ठ किरयलफरिसु,
    संसोइउ तणु हिमिण हाम हेयह सरिसु।
    हेमंति कंत विलवंतियह, जइ पलुट्टि नासासिहसि।
    संतइय मुक्ख खल पाइ मइ, मुइव विज्ज किं श्राविहसि॥

    १९१, सन्देसरासक;