पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/२०६

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शोध की और अपने विविध लेखों द्वारा रासो के विरोधियों को अपना मत सुधारने की प्रेरणा देने का यथाशक्ति उद्योग किया। पं॰ झाबरमल शर्मा[१] ने चौहानों को अग्निवंशी कहलाने के प्रमाण देकर रासो वर्णित अग्नि-कुल का प्रतिपादन किया। पं॰ नरोत्तमदास स्वामी[२] ने पृथ्वीराज रासो की भाषा तथा पृथ्वीराज के दो मंत्रियों पर प्रकाश डाला। श्री अगरचंद नाहटा[३] ने पृथ्वीराज रासो की हस्तलिखित प्रतियों की सूचना दी और पृथ्वीराज की सभा में जैनाचार्यों के एक विनोदपूर्ण शास्त्रार्थ का उल्लेख किया। प्रो० नीनाराम रंगा[४] ने डॉ० दशरथ शर्मा के सहयोग से रासो की भाषा पर विचार प्रकट किये । श्री उदयसिंह भटनागर[५] ने 'पृथ्वीराजरासो' में चंद के वंशजों के कई नाम उसके छन्दों के रचयिता के स्वरूप में प्रयुक्त किये जाने की ओर भी ध्यान रखने का संकेत किया। कवि राव मोहनसिंह[६] ने रासो की प्रामाणि कता की परीक्षा तथा उसके प्रक्षेपों को हटाने के लिये नये विचारणीय तर्क


सन् १९५० ई० : परमारों की उत्पत्ति, वही, भाग ३, श्रङ्क २, जुलाई सन् १९५१ ३० ; रासो के अर्थ का क्रमिक विकास, साहित्य-सन्देश, जुलाई सन् १९५१ ई० : सम्राट पृथ्वीराज चौहान की रानी पद्मावती, मरु- भारती, वर्ष १, अङ्क १, सितम्बर सन् १६५९ ३०; दिल्ली का तोमर राज्य, राजस्थान-भारती, भाग ३, अङ्क ३-४, जुलाई सन् १९५३ ई०

  1. चौहानों को अग्निवंशी कहलाने का आधार, राजस्थानी, भाग ३, अङ्क २ अक्टूबर सन् १९३९ ई॰ ;
  2. सम्राट् पृथ्वीराज के दो मंत्री, राजस्थानी भाग ३, अंक २, जनवरी सन् १९४० ३० पृथ्वीराज रासो, राजस्थान भारती, भाग १, अंक १, अप्रैल सन् १६४६ ई०; पृथ्वीराज रासो की भाषा, वही, भाग १, अंक २, जुलाई सन् १९४६ ई०;
  3. पृथ्वीराज रासो और उसकी हस्तलिखित प्रतियाँ, राजस्थानी, भाग ३, अङ्क २, जनवरी सन् १६४० ई०; पृथ्वीराज की सभा में जैनाचार्यों के शास्त्रार्थ, हिन्दुस्तानी, पृ० ७१-६६;
  4. बीणा, अप्रैल १९४४ ३०, राजस्थान भारती, भाग १, अङ्क १, अप्रैल सन् १९४६ ३० ; बही, भाग १, अङ्क ४, जनवरी सन् १९४७ ई०;
  5. पृथ्वीराज रासो सम्बन्धी कुछ जानने योग्य बातें, शोध-पत्रिका, भाग २, अङ्क १, चैत्र सं० २००६ वि० ( सन् १९४६ ई० )
  6. पृथ्वीराज रासों की प्रामाणिकता पर पुनर्विचार, राजस्थान भारती, भाग १, अङ्क २-३, जुलाईक्टूबर सन् १९४६ ई०;