पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/२२१

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पवन रूप परचंड। घालि असु असि वर मारै ।
मार मार सुर बजि । पत्त तरु अरि तिर पारें ॥
फटकि सह फीफरा । हड्डु कंकर उपारै ॥
कटि भरुँड परि मुंड ।भिंड कंटकउप्पा॥
वजय विषम मेवार पति । रज उडाइ सुरतान दल॥
समरथ्य समर सम्मर मिलिय। अनी पियौ सवल ॥६९

उन्तीसवें समय में पृथ्वीराज द्वारा सुलतान से दंडस्वरूप पाया हुआ सुवर्ण रावल जी के पास भेजने का समाचार मिलता है।[१] रणथम्भौर के राजा भान की अभयदान - याचना सुनकर पृथ्वीराज, समरसिंह को भी सहायतार्थ बुलाते हैं[२] और दोनों की सेनायें चार्तं का उद्धार करती हैं[३]| द्वारिका यात्रा में चंद चित्तौड़ जाकर पृथा और समरसिंह द्वारा पुरस्कृत होता है।[४] द्वितीय हाँसोपुर युद्ध में आहुरुपति रावल चित्रांग को पृथ्वीराज के मंत्री कैमास बुला भेजते हैं जहाँ युद्ध में विजयी होकर वे दिल्ली जाते हैं तथा कुछ दिन वहाँ रहकर भेंटस्वरूप मुसजित बीस घोड़े और पाँच हाथी पाकर घर लौट जाते हैं।[५] अपने राजसूय यज्ञ के निमंत्रण का रावल जी द्वारा विरोध सुनकर[६] जयचन्द्र के चित्तौड़ पर आक्रमण में विजय श्री समरसिंह को ही प्राप्त होती है[७]। एक रात्रि को स्वप्न में दिल्ली की मन-मलीन राज्यलक्ष्मी को देखकर[८] रावत जी अपने पुत्र रतन को राज्यमार दे देते हैं[९] जिससे उनका (ज्येष्ठ) पुत्र कुंभकर्ण (प्रसन्न होकर ) बीदर के बादशाह के पास चला जाता है[१०]। दिल्ली पहुँचकर वहाँ की अव्यवस्था और पृथ्वीराज को संयोगिता के रस-रंग में निमग्न देखकर उन्हें


  1. छं० ५६-५७;
  2. छं० २२, स० ३६;
  3. ६० २३.८५, वही }
  4. छं० १८-२५, स० ४२;
  5. ६० ६४-२०३, स० ५२;
  6. ६०.० २४-५१, स० ५५ ;
  7. ई० ११०६, स० ५६ :
  8. ई० ११०६, स० ५६ :
  9. छं०५, वही;
  10. छं० ६,वही