पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/२२२

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बड़ा क्लेश होता है[१], इसी बीच में गोरी के का समाचार मिलता है और पृथ्वीराज उसले मोर्चा लेने के लिये सद्ध होते हैं[२], चौहान द्वारा घर चले जाने के प्रस्ताव और प्रार्थना पर रुष्ट होते हुए वे सुलतान से सिडने का हठ करके ठहर जाते हैं[३] तथा युद्ध में अद्भुत पराक्रम प्रदर्शित कर, वीरगति प्राप्त करते हैं :

सेदिष्वि वान पुरसान गुर बर जंमथ्थ उपदिय ॥
समर सिंव दुष चहर । हिंदु मेछन मिलि जुट्टिय ॥
शिद्धिनि पल संग्रहन । जुम्भ लंबे रन आइ ॥
श्रोन परत निफरत । पत्र जुग्गिनि लै धाइय ॥
पल चरित्र मेछ हिंदू सहर । अच्छा मल अति जाग किय ॥
महदेव सीस बंधे गरां । काल झरपि लीनौ नुजिय ॥ १३८७

युद्ध का विषन परिणाम सुनकर संयोगिता के प्राण छूट जाते हैं और रावल जी की सहगामिनी पृथा सती हो जाती हैं

निरवि निधन संजोगि । प्रिथी सजी सु सामि सथ॥
हकि हंस तत्तारि । वीर अवरिय प्रेम पथ॥
साजि सकल शृंगार । हार मंडिय सुगतामनि ॥
रजि भूषन हयरोहि । जलिज अति उच्छारति ॥
है या सह जंपत जगत । हरि हर सुर उच्चार वर ।।
सह गमन सिंघ राबर चलें । तजि महि फूल श्रीफल सुकर ॥ १६२०

समरसिंह सम्बन्धी रासी की इस कथा का उल्लेख संक्षेप में 'राज- प्रशस्ति काव्य[४] में भी मिलता है।

रासो की विवेचना करते हुए समरसिंह के प्रसंग में अमृतलाल शील ने लिखा है - "समरसिंह और रत्नसिंह के जो कई दान पत्र मिले हैं उनसे प्रमाणित होता है कि समरसिंह पृथ्वीराज से एक शताब्दी पीछे चित्तौर के राजसिंहासन पर बैठा था और उसका पुत्र रत्नसिंह ईसा की चौदहवीं सदी में अलाउद्दीन खिलजी के समय विद्यमान था। इससे प्रमाणित होता है कि समरसिंह पृथ्वीराज का बहनोई अथवा


  1. छं० ७७०, बही;
  2. छं० १८०-३३८, वही;
  3. घं० ३३६-६५, वही;
  4. सर्ग ३, श्लोक २४-२७ ;