पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/२४

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उसके महल में जाते हैं । यह वसंत ऋतु हैं और रानी वसंत का आगमन और उसमें अपना विरह निवेदन करके राजा को रोकती है:

यामंगं कलधूत नूत सिघरं, मधुरे मधू वेष्टिता ।
बाते सीत सुगंध मंद सरसा, अलोल संचेष्टिता ।।
कंठी कंठ कुलाहले मुकलया, कामस्य उद्दीपने ।
रते रत्त वसंत मत्त सरसा, संजोग भौगयते ।।९

इसी प्रकार के चार छै छंद और सुनने पर राजा वसंत भर उसके पास रुक गये । ग्रीष्म ऋतु के आगमन पर वे रानी पुडोरिनी से जाने की अनुमति लेने जाते हैं। पुडीरिनी उनसे ग्रीष्म में दिनों की दीर्घता, दाघ का कोण, अनंत बवंडर, रात्रि में मार्ग-जमन, जल की अदृश्यता, तपे हुए शरीर को चंदन द्वारा शीतलता, चन्द्रमा की मंद ज्योत्स्ना आदि का वर्णन करके उन्हें उक्त ऋतु भर अपने पास ठहरने के लिए कहती है :

दीहा दिध्ध सदंग कोप अनिला, अविर्त मित्ता करें ।
रेन सेन दिसान थान मिलनं, गोमग आडंबर |
नीरे नीर अपीन छीन छप्या, तपय तरुया तनं ।।
मलया चंदन चंद मंद किरन, ग्रीष्मं च षेवनं ।।१८

पूर्वानुसार कुछ छंद सुनने पर राजा अभिभूत होकर उसके पास रुके जाते हैं और वर्षा ऋतु आ जाती है । उस युग में वर्षों में यात्रायें नहीं होती थी और जाना आवश्यक होने पर पर्थिक जुन घोड़ों के स्थान पर नावों से यात्रा करते थे——

दिसि पावासुम थक्किय णियकज्जगमिहिं,
गमिथइ विहिं मश्गु पहिय । तुरंगमिहिं }} १४२;संदेश-रासक ।

फिर भी ऋतु-वर्णन की योजना तो कवि कर ही चुका था अस्तु पृथ्वीराज व अाचे पर रानी इन्द्रावती के घर जाते हैं जो प्रिय का गमन सुनकर दु:ख में भर जाती है और उमड़ते हुए अाँसुओं सहित उत्तर देती है:

पीय वदन सो प्रिय परषि । हरष न भय सुनि गोंन ।
असू मिसि असु उपटै । उत्तर देय सलोन ||२६....
• जे बिजुझझल फुट्टि तुष्टि तिमिरे, पुन अंधनं दुस्सहं ।
बंद घोर तरं सहंत असहं, वरषा रस सारं ।।
बिरहीनः दिन दुष्ट दारुल भरं, भोगी सर सोभनं ।
मा मुक्के पिय गोरियं च अबलं, प्रीतं तया तुच्छया ।। ३५