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बारहवीं शती के जिन पद्म सूरि ने अपने स्थूलभद्दफाय' में वर्षा वाले में कामीजनों को अपनी रमणियों के चरणों में गिर कर उन्हें मनाने का वर्णन किया हैं :

झिरमिरि झिरमिरि झिरमिरि ए मेहा बरिसति । खलहल खलहल खेलहल ए बादला वहति ।। झबकुछ झवझव बिझने ए बीजुलिय झबक्कइ । थरहर थरहर थरहर ए विरहिणि भणु कंपइ ।। ६ ।। महुर गांभीर सरेण मैह जिसि जिमि गाजते ।। पंचबाण निय-कुसुम-बाण तिम् तिम साजते । जिम जि केतकि महमहंत परिमल विहसावइ । तिम तिम् कामिय चरण लगि निय रमणि मनावः ।। 9</poem>

अस्तु ग्रीष्म में रानी पुडीरिनी के महल में काम रूप करि गय नपति’ रसिक पृथ्वीराज वर्षा में ऋतु की प्रेरणा से इन्द्रावती के महल में क्यों न जाते हैं।

तदुपरांत 'वरिखा रितु गई उरद रितु वलती, वाखाणिसु वयणा वयशि ( बेलि ) ऐसी सुदर शरद ऋतु के आने पर राजा ने रानी हंसावतों से पूछा और उसने उक्त ऋतु का वर्णन करते हुए कहा कि हे कांत शरद बड़ी दारुण होने से असह्य है, इससे भवन त्याग कर गमन मत करो——

इप्पन सम अाकास । श्नवत जल अमृत हिमकर ।।
उज्जल जल सलिता सु । सिद्धि सुदर सरोज सर ।।
प्रफुलित ललित लतानि । करत गुजारव भमर ।।
उदित सित निसि नूर । अगि अति उमगि अंग बर।।
तलफंत प्रान निसि भवन तन । देषत दुति रिति मुष जरद ।।
नन करहु भगवन नन भवन तजि । कैते दुसह दारुन सरद ॥४२

वैसे शरद ऋतु में राजा-राण अभियान के लिये सन्नद्ध हो जाते थे परंतु हंसावती के लिये सरदाथ दरदायने’ पाकर पृथ्वीराज ठहरने के लिये विवश हो गये ।

फिर हेमंत ऋतु अई, राजा को हंसावती से छुटकारा मिला और रानी कुरंभी के महल' की ओर विदा लेने के लिये बढ़े। उसने कहा-दिन छोटे होने लगे, रात्रि बढ़ने लगी, शतं की साम्राज्य छा गया, स्त्री पुरुष अनंग के आलिंगन पाश में बद्ध होकर शय्या की शरण लेने लगे, इस ऋतु में हिम जिस प्रकार कमलिनी को जला डालता है उसी प्रकार वह वियोगिनी