पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/२६

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तरुणी बोला को भी कवलित कर लेता है अतएव इस हेमन्त में अपनी प्रमदा को निरावलम्ब छोड़कर मत जाय } और मानव शरीर के दो ही धर्म हैं ग या योग, चाहे वनिता का सेवन करे चाहे वन का, चाहे पंचाग्नि की साधना करे चाहे उरोजों की उष्णता से अपना शारीरिक शीत निवारण करे, चाहे गिरि कंदराओं का जलपान करे चाहे अधरों का रस पिये, चाहे योग की निद्रा के मद में अलसित स्हे चाहे सुदरब' धारण करे, चाहे अनुराग त्याग दे और चाहे राग से मन सँग ले तथा चाहे पर्वतीय झरनों के कलकल से प्रीति करे चाहे स्त्री के मधुर वचनों में अनुरक्त हो । इस ऋतु में विराट विश्व की त्राण इन्हीं विधियों के द्वारा हो सकता है तथा सुर और असुर भी ये ही मार्ग ग्रहण करते हैं :

छिन्नं सुर सीत दिब्य निया, सीतं जनेतं बने ।
सेज सज्जर बस्न बनितया, अनंग अलिंगने ।
यौं बाल तरुनी वियोग पतनं, नलिनी दहनते हिमं ।
मा मुक्के हिमवंत मन्तै गमने, प्रमुद्रा निरालम्बनं ।}४९....
देह धरे दोगति । भौग जगहे तिन सेवा ।।
कै वन कै वनिता । अगनि तप के कुच लेवा || .
गिरि केंदर जल पीन ( पियन अधरारस भारी ।।
जोगिनीद सद उमद् । के छगन वसन सवारी ॥
अनुराग बीत कै रो मन ! बचन तय गिर झरन रति ।।
संसार बिकट इन विधि तिरय ! इही विधी सुर असुर अलि।।५१

| फिर राजा को कुछ द्रवित होता देखकर रानी रोमावली रूपी वनराज और कुच रूपी पर्वत का प्रसंग चला कर उनके कंठ से लग गई——

रोनावलि ने जुथ्थ । वीच कुच कूट भार गज ।।
हिरदै जल विसाल । चित्त आराधि मडि सज ।।
विरह करन क्रीलई । सिद्ध कामिन डरप्पै ।।
तो चलन चहुअन । दीन छ। मैं रुप्पै ।।
हिमवंत कंत मुकै न त्रिय । पिया पन्न पोभिनि परषि ।।।
अg कंठ के ऊछन् अवनि । चलत तोहि लगिंवाय रू ||५२

अब टुथ्वीराज क्या करते ? राठौर नरेश ने वेलि' में लिखा है—— नीछि छुडै कास पोस निसि, प्रौढा करणे पङ्ग रण' अर्थात् पौष की रात्रि से प्रकाश रूपी पति बड़ी कठिनाई से छूटता है जैसे रात्रि के