पृष्ठ:रेवातट (पृथ्वीराज-रासो).pdf/२५५

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चरण स्पर्श करने के लिये झुके । राजा मान दल बल सहित आकर मिला, दलगढ़ का राजा खड्ड तथा नंदिपुर का राव मिला और रेवा नरेन्द्र भी स्वयं याकर मिला । वन में अनेक मृगों, सिंहों और हाथियों के यूथ थे जिनका महाराज ने शिकार खेला। ( तत्र ) लाहौर स्थान में जो ( शासक चंदपु डीर) था और जो सुलतान को कष्ट देने वाला था उसका वर ( श्रेष्ठ ) पत्र मिला ।

"वहीं उन्हें लाहौर से एक पत्र मिला जिसमें सुलतान की बढ़ी हुई शक्ति का वर्णन था ।" ह्योर्नले | ( इन्होंने 'तपवर' का अर्थ मिलाकर किया है )।

शब्दार्थ – रू० १२ -- ताप-कष्ट । पहुपंय यह कन्नौज के राजा जय- चंद की एक उपाधि थी। [ पहु प्रभु (= स्वामी ) +पंग या पंगल ( = लंगड़ा) ] । और एक नाम दुल- पंगुल भी था। रासो में पहुपंग और दल- पंगुल (दुल- पंगुल) दोनों नाम मिलते हैं। जयचन्द का नाम दल- पंगुल क्यों पड़ा इसे पृथ्वीराज रासो सम्यो ६१ छंद, १०२८ में चंद वरदाई ने इस प्रकार लिखा है-

"जैसे नर पंगुरौ । विन सु भंगुरी न हल्लाहि ॥
आधारित भंगरी । हरु वह वत्तन चल्लहि ॥
तै रा जयचंद । असं दल पार न पायौ ॥
चालक इक सर सरित । दलन हरवल्ल अधायौ ॥
दिसि उभय गंग जमुना सु नदि । श्रद्ध कोस दत्त तब बह्यौ ॥
कविचंद कहै जै चंद नृप । तातें दल पंगुर कह्यौ ॥"

जयचंद का 'पहुपंग' नाम केवल इसी २७ वें सम्यौ में ही नहीं आया है। रासो सम्पौ २६ छंद ४- तव पहुपंग नरिंद। कुसल जानी न गरिट्ठो ॥"; छंद ६---"तव पहुपंग नरिंद प्रति । दूत सु उत्तर जप्पु ॥" इसी प्रकार रासो के अनेक स्थलों पर 'पहुरंग' नाम मिलता है जो जयचंद के लिये ही प्रयुक्त हुआ है। टॉड ने अपने राजस्थान में लिखा है कि दुल- पंगुल नाम की उत्पत्ति इस प्रकार हुई "कन्नौज राज्य के किले की चहार दीवारी तीस मील से भी अधिक थी और राज्य की असंख्य सेना के कारण राजा का विशेषण दुल- पंगुल हो गया । दुल-पंगुल से तात्पर्य है कि राजा लँगड़ा है या सेना की अधिकता के कारण वह नहीं चल सकता । चंद के अनुसार गली सेना युद्ध क्षेत्र में पहुँच जाती थी तब भी पिछली सेना को आगे बढ़ने का स्थान न मिलता था और वह खड़ी ही रह जाती थी" [ Annals and Antiquities of Rajasthan. Tod Vol II, p. 7] । पु०रासो के अतिरिक्त 'रंभा- मंजरी' की भूमिका पृष्ठ ४ तथा उसके प्रथम अंक, पृष्ठ ६ में भी हमें राजा