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कसना । एकं = एक। जीव = जिये । सहाब साहि साहब शाह ( गोरी शहाबु- न )। ननयं = न। बीयं = दूसरा । स्तयं <सं० स्तवं = स्तुति, प्रशंसा; स्वागत । सेनयं = सेना ।

नोट- रू० १४ -"यह सुनते ही शहाबुद्दीन ने दरवार में पान का बीड़ा रखकर कहा कि जो इस बीड़े को खाकर पृथ्वीराज को पकड़ लावे उसे मैं बहुत कुछ इनाम दूँगा ।" रासो-सार, पृष्ठ १००॥

दूहा १४ से कुंडलिया १७ तक लाहौर के शासक चंद पुंडीर के दूत द्वारा लाये हुए पत्र का हाल है । 'रासो-सार' के लेखक इस रहस्य को सम्भवत: न समझ सके जिसके फलस्वरूप उपर्युक्त वार्ता लिख दी गई ।

रू० १५- साटक छंद का लक्षण–

यह छंद आधुनिक छंद-ग्रंथों में नहीं मिलता । "गुजराती भाषा के काव्यों में इस नाम का छंद मिला और The Rev. Joseph Van S. Taylor साहब ने अपने गुजराती भाषा के व्याकरण के छंद - विन्यास नामक प्रकरण के पृष्ठ २२३ में इसका साटक नाम से ३८ अक्षरों की दो तुक का छंद होना लिखा है जिसकी प्रत्येक तुक में १२+७= १६ अक्षर होते हैं इसके अतिरिक्त प्राकृत भाषा के किसी छंद ग्रंथ से अनुवादित होकर संवत् १७७६ में "रूपदीप पिंगल" नामक छंद-ग्रंथ में साटक छंद का यह लक्षण लिखा है-

"कद्वाद संग्या, मात्रा सिवो सागरे।
दुज्जी वी करिके कलाष्ट दसवी, अर्कोविरामाधिकं ॥१॥
गुर्व निहार धार सबके, औरों कछू भैद ना ।
तीसों मत्त उनी अंक वने, सेसो भरी साटकं ॥२॥

हम इस सादक छंद को पिंगल- छंद- सूत्रम नामक ग्रंथ में कहे शाईल- विक्रीडित छंद का नामान्तर होना मानते हैं और उसका लक्षण बहुत प्राचीन अमर और भरत कृत छंदों में होना अवश्य अनुमान करते हैं क्योंकि चंद कवि ने भी अपने इसी ग्रंथ (पृथ्वीराज रासो) के आदि पर्व के रूपक ३७ में जो कुछ कहा है उससे स्पष्ट मालूम होता है कि उसने अपने इस महाकाव्य की रचना मैं पिंगल, अमर और भारत के छंद-ग्रंथों का श्राश्रय अवश्य लिया है ।" [ना० प्र० सं०, पृ० रा० फुट नोट, पृष्ठ १-२]।

दूहा

अहि बेली फल हथ् लै, तौ ऊपर तत्तार।
मेच्छ मसरति सत्तिकै, वंच कुरानी बार ॥ छं० १६ । रू० १६ ।